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अर्जुन को अपकीर्ति से किया सावधान

अर्जुन को अपकीर्ति से किया सावधान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘माननीय पुरूष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह दिखलाया है कि यदि कदाचित तुम यह मानते होओ कि अपकीर्ति होने में हमारी क्या हानि है? तो ऐसी मान्यता ठीक नहीं है। जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध हो जाता है, जिसे बहुत लोग श्रेष्ठ मानते है, ऐसे पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से ही बढ़कर दुःखदायिनी हुआ करती है। अतएव जब वैसी अपकीर्ति होगी तब तुम उसे सहन न कर सकोगे; क्योंकि तुम संसार में बड़े शूरवीर और श्रेष्ठ पुरुष के नाम से विख्यात हो, स्वर्ग से लेकर पाताल तक सभी जगह तुम्हारी प्रतिष्ठा है।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। 35।।

प्रश्न-जिनकी दृष्टि में ‘तृ बहुत सम्मानित होकर लधुता को प्राप्त होगा’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि भीष्म, द्रोण और शल्य आदि तथा विराट, दु्रपद, सात्यकि और धृष्टद्युम्नादि महारथीगण, जो तुम्हारी बहुत प्रतिष्ठा करते आये हैं, तुम्हें बड़ा भारी शूरवीर, महान् योद्धा और धर्मात्मा मानते हैं, युद्ध का त्याग करने से तुम उनकी दृष्टि से गिर जाओगे-वे तुमको कायर समझने लगंेगे।

प्रश्न-‘महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेगें’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने महारथियों की दृष्टि से अर्जुन के गिर जाने का ही स्पष्टीकरण किया है। अभिप्राय यह है कि वे महारथी लोग यह नहीं समझेंगे कि अर्जुन अपने स्वजन समुदाय पर दया करके या युद्ध को पाप समझकर उसका परित्याग कर रहे हैं वे तो यही समझेंगे कि ये भयभीत होकर अपने प्राण बचाने के लिए युद्ध का त्याग कर रहे हैं। इस परिस्थिति में युद्ध न करना तुम्हारे लिये किसी तरह भी उचित नहीं है।

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहितः।

निन्दन्तस्तव सामथर्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।। 36।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?

उत्तर-छठे श्लोक में अर्जुन ने यह बात कही थी कि मेरे लिये युद्ध करना श्रेष्ठ है या न करना तथा युद्ध में हमारी विजय होगी या हमारे शुत्रओं की, इसका मैं निर्णय नहीं कर सकता; उसका उत्तर देते हुए भगवान् इस वाक्य से युद्ध करते-करते मारे जाने में अथवा विजय प्राप्त कर लेने मे दोनों में ही लाभ दिखलाकर अर्जुन के लिये युद्ध का श्रेष्ठत्व सिद्ध करते हैं। अभिप्राय यह है कि यदि तुम मारे गये तो भी अच्छी बात है, क्योंकि युद्ध में प्राण त्याग करने से तुुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजय प्राप्त कर लोगे तो पृथ्वी का राज्य सुख भोगोगे; अतएव दोनों ही दृष्टियों से तुम्हारे लिए तो युद्ध करना ही सब प्रकार से श्रेष्ठ है। इसलिये तुम युद्ध के लिये कमर कसकर तैयार हो जाओ।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापभवाप्स्यसि।। 38।।

प्रश्न-जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझना क्या है?

उत्तर-युद्ध में होने वाले जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख में किसी तरह की भेद बुद्धि का न होना अर्थात् उनके कारण मन में राग-द्वेष या हर्ष-शोक आदि किसी प्रकार के विकारों का न होना ही उन सबको समान समझना है।

प्रश्न-उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि तुमको राज्यसुख और स्वर्ग की इच्छा नहीं है तो युद्ध में होने वाले विषम भाव का सर्वथा त्याग करके उपर्युक्त प्रकार से युद्ध के प्रत्येक परिणाम में सम होकर उसके बाद तुम्हें युद्ध करना चाहिये। ऐसा युद्ध सदा रहने वाली परम शान्ति को देने वाला है।

प्रश्न-‘इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने अर्जुन के उन वचनों का उत्तर दिया है जिनमें अर्जुन ने युद्ध में स्वजन वध को महान् पाप कर्म बतलाया है और ऐसा बतलाकर युद्ध न करना ही उचित सिद्ध किया है। अभ्रिपाय यह है कि उपर्युक्त प्रकार से युद्ध करने पर तुम्हें किसी प्रकार का किंचित मात्र पाप से भी सर्वथा मुक्त हो जायगा।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धियांगे त्विमां शृणु।

बुद्धîा युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। 39।।

प्रश्न-यहाँ ‘एषा’ विशेषण के सहित ‘बुद्धिः’ पद किस बुद्धि का वाचक है और ‘यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञान योग के विषय में कही गयी’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में भगवान ने अर्जुन को जिस समभाव से युक्त होकर युद्ध करने के लिये कहा है उसी समता का वाचक यहाँ ‘एष’ पद के सहित ‘बुद्धि पद है; क्योंकि ‘एपा’ पद अत्यन्त निकटवर्ती वस्तु का लक्ष्य कराने वाला है। अतएव इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ज्ञान योग के साधन से यह सममात्र किस प्रकार प्राप्त होता है, ज्ञान योगी को आत्मा का यथार्थ स्वरूप विवेक द्वारा समझाकर किस प्रकार समभाव से युक्त रहते हुए वर्णाश्रमोचित विहित कर्म करने चाहिये-ये सब बातें ग्यारहवें श्लोक से लेकर तीसवें श्लोक तक बतला दी गयीं।

प्रश्न-ग्यारहवें श्लोक से तीसवें श्लोक तक के प्रकरण में इस समभाव का वर्णन किस प्रकार किया गया है? उत्तर-आत्मा के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण ही मनुष्य का समस्त पदार्थों में विषमभाव हो रहा है। अब आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने पर उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का भेद नहीं रहता और एक सच्चिदानन्दधन ब्रह्म से भिन्न किसी की सत्ता नहीं रहती, तब उसकी किसी में भेद बुद्धि हो ही कैसे सकती है। इसीलिये भगवान् ने एकादा श्लोक में मरने और जीवित रहने में भ्रममूलक इस विषम भाव या भेद बुद्धि के कारण होने वाले शोक को सर्वथा अनुचित बतलाकर उस शोक से रहित होने वाले के लिये संकेत किया, बारहवें और तेरहवें श्लोकों में आत्मा के नित्यत्व और असंगतत्व का प्रतिपादन करते हुए यह दिखलाया है कि प्राणियों के मरने में और जीवित रहने में जो भेद प्रतीत होता है, यह अज्ञान जनित है, आत्मज्ञानी धीर पुरुषों में यह भेद बुद्धि नहीं रहती; क्योंकि आत्मा सम, निर्विकार और नित्य है। तदनन्तर शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों के द्वारा भेदबुद्धि उत्पन्न करने वाले शब्दादि समस्त विषय-संयोगों को अनित्य बतलाकर अर्जुन को उन्हें सहन करने के लिये उनमें सम रहने के लिये कहा और सुख-दुःखादि को सम समझाने वाले पुरुष की प्रशंसा करके उसे परमात्मा की प्राप्ति का पात्र बतलाया। इसके बाद सत्यासत्य वस्तु का निर्णय करके अर्जुन को युद्ध के लिये आज्ञा देकर अगले श्लोकों में आत्मा को मरने-मारने वाला मानने वालों को अज्ञानी बतलाकर आत्मा के निर्विकारत्व, अकर्तृत्व और नित्यत्व का प्रतिपादन करते हुए यह बात सिद्ध कर दी कि शरीरों के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता; इसलिये इस मरने और जीने में किंचित मात्र भी शोक करना उचित नहीं है। इस प्रकार उक्त प्रकरण में सत्य और असत्य पदार्थों के विवेचन द्वारा आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने से होने वाली समता का प्रतिपादन किया गया है।
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