शरीर अलग-अलग, आत्मा एक
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। 18।।
प्रश्न-‘इमे’ के सहित ‘देहाः‘ पद यहाँ किनका वाचक है? और उन सबको ‘अन्तवन्त‘’ कहने का क्या अभिप्राय है?
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
उत्तर-‘इमे’ के सहित ‘देहाः’ पद यहाँ समस्त शरीरों का वाचक है और असत् की व्याख्या करने के लिये उनको ‘अन्तवन्तः‘ कहा है। अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित समस्त शरीर नाशवान् हैं। जैसे स्वप्न के शरीर और समस्त जगत् बिना हुए ही प्रतीत होते हैं, वैसे ही ये समस्त शरीर भी बिना ही हुए अज्ञान-से प्रतीत हो रहे है; वास्तव में इनकी सत्ता नहीं है। इसलिये इनका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतएव इनके लिये शोक करना व्यर्थ है।
प्रश्न-यहाँ ‘देहाः’ पद में बहुवचन का और ‘शरीरिणः‘ पद में एक वचन का प्रयोग किसलिये किय गया है?
उत्तर-इस प्रयोग से भगवान् ने यह दिखलाया है कि समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है। शरीरों के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में भेद नहीं है।
प्रश्न-‘शरीरिणः‘ पद यहाँ किसका वाचक है और उसके साथ ‘नित्यस्य’, ‘अनाशिनः’ और ‘अप्रमेयस्य’ विशेषण देने का तथा शरीरों के साथ उसका सम्बन्ध दिखलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व से समस्त जडवर्ग को व्याप्त बतलाया है, उसी तत्त्व का वाचह यहाँ ‘शरीरिणः’ पद है तथा इन तीनों विशेषणों का प्रयोग उस ‘सत्’ तत्त्व के साथ इसकी एकता करने के लिये ही किया है एवं इसे ‘शरीरी’ कहकर तथा शरीरों के साथ इसका सम्बन्ध दिखलाकर आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि व्यावहारिक दृष्टि से जो भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण करने वाले, उनसे सम्बन्ध रखने वाले भिन्न-भिन्न आत्मा प्रतीत होते हैं, वे वस्तुतः भिन्न-भिन्न नहीं हैं, सब एक ही चेतन तत्त्व हैं; जैसे निद्रा के समय स्वप्न की सृष्टि में एक पुरुष के सिवा कोई वस्तु नहीं होती, स्वप्न का समस्त नानात्व निंद्राजनित होता है, जागने के बाद पुरुष एक ही रह जाता है, वैसे ही यहाँ भी समस्त नानात्व अज्ञान जनित है, ज्ञान के अनन्तर कोई नानात्व नहीं रहता।
प्रश्न-हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद के सहित युद्ध के लिए आज्ञा देने का यहाँ क्या अभिप्राय है?
उत्तर-हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद के सहित युद्ध के लिये आज्ञा देकर भगवान् ने यहाँ यह दिखलाया है कि जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि शरीर नाशवान् हैं, उनका नाश अनिवार्य है और आत्मा नित्य है, उसका कभी नाश होता नहीं, तब युद्ध में किश्ंिचत मात्र भी शोक का कोई कारण नहीं है। अतएव अब तुमको युद्ध में किसी तरह की आनाकानी नहीं करनी चाहिये।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। 19।।
प्रश्न-‘यदि आत्मा न मरता है और न किसी को मारता है, तो मरने और मारने वाला फिर कौन है?
उत्तर-‘स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर के वियोग को ‘मरना’ कहते हैं, ‘अन्तवन्तः इमे देहाः’ कहा गया। इसी तरह मन-बुद्धि के सहित जिस स्थमल शरीर की क्रिया से किसी दूसरे स्थूल शरीर के प्राणों का वियोग होता है, उसे ‘मारने वाला’ कहते हैं। अतः मारने वाला भी शरीर ही है, आत्मा नहीं किन्तु शरीर के धर्मों को अपने में अध्यारोपित करके अज्ञानी लोग आत्मा को मारने वाला (कर्ता) मान लेते हैं। इसीलिये उनको उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 20।।
प्रश्न-‘न जायते म्रियते’-इन दोनों क्रिया पदों का क्या भाव है?
उत्तर-इनसे भगवान् ने आत्मा में उत्पत्ति और विनाश-रूप आदि-अन्त के दो विकारों का अभाव बतलाकर उत्पत्ति आदि छहों विकारों का अभाव सिद्ध किया है और इसके बाद प्रत्येक विकार का अभाव दिखलाने के लिये अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया है।
प्रश्न-उत्पत्ति आदि छः विकार कौन-से हैं और इस श्लोक में किन-किन शब्दों द्वारा आत्मा में उनका अभाव सिद्ध किया है?
उत्तर-1 उत्पत्ति (जन्मना), 2, अस्तित्व (उत्पन्न होकर सत्ता वाला होना), 3 वृद्धि (बढ़ना), 4 विपरिणाम (रूपान्तर को प्राप्त होना), 5 अपक्षय (क्षय होना या घटना) और 6 विनाश (मार जाना)-ये छः विकार हैं। इनमें से आत्मा को ‘अजः‘ (अजन्मा) कहकर उसमें ‘उत्पत्ति’ रूप विकार का अभाव बतलाया है। ‘अयं भूत्वा भूयः न भविता’ अर्थात् यह जन्म लेकर फिर सत्ता वाला नहीं होता, बल्कि स्वभाव से ही सत् है-यह कहकर ‘अस्त्वि’ रूप विकार का ‘पुराणः‘ (चिरकालीन और सदा एकरस रहने वालेा कहकर ‘बुद्धि’ रूप विकार का, ‘शाश्वत’ (सदा एक रूप में स्थित) कहकर विपरिणामका, नित्यः’ (अखण्ड सत्ता वाला कहकर ‘क्षय’ का और ‘शरीरे हन्यमाने न हन्यते’ (शरीर के नाश से इसका नाश नहीं होता)-यह कहकर ‘विनाश’ का अभाव दिखलाया है।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।। 21।।
प्रश्न-‘इस श्लोक में भगवान् के कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर-इसमें भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो पुरुष आत्म स्वरूप को यथार्थ जान लेता है, जिसने इस तत्त्व का भलीभाँति अनुभव कर लिया है कि आत्मा अजन्मा, अविनाशी, अव्यय और नित्य है, वह कैसे किसको मारता है और कैसे किसको मरवाता है? अर्थात् मन् बुद्धि और इन्द्रियों के सहित स्थूल शरीर के द्वारा दूसरे शरीर का नाश किये जाने में वह यह कैसे मान सकता है कि मैं किसी को मार रहा हूँ या दूसरे के द्वारा किसी को मरवा रहा हूँ? क्योंकि उसके ज्ञान में सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व है, जो न मरता है और न मारा जा सकता है, न किसी को मारता है और न मरवाता है; इतएव यह मरना, मारना और मरवाना आदि सब कुछ अज्ञान से ही आत्मा में अध्यारोपित हैं, वास्तव में नहीं हैं। अतः किसी के लिये भी किसी प्रकार शोकर करना नहीं बनता।
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