पांच कार्य मनुष्य को अधर्म से बचाते है
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्óमधमोंऽमिभवत्युत।। 40।।
प्रश्न-‘सनातन कुलधर्म’ किन धर्मों को कहते हैं-और कुल के नाश से उन धर्मों का नाश कैसे हो जाता है?
उत्तर-अपने-अपने कुल में परम्परा से चली आती हुई जो शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएँ हैं, जिनसे सदाचार सुरक्षित रहता है और कुल के स्त्री-पुरुषों में अधर्म का प्रवेश नहीं हो सकता, उन शुभ और श्रेष्ठ कुल-मर्यादाओें को ‘सनातन कुलधर्म’ कहते हैं। कुल के नाश से, जब इन कुल-धर्मों के जानने वाले और उनको बनाये रखने वाले बड़े-बूढ़े लोगों का अभाव हो जाता है, तब शेष बचे हुए बालकों और स्त्रियों में धर्म स्वाभाविक ही नहीं रह सकते।
प्रश्न-धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पाँच हेतु ऐसे हैं, जिनके कारण मनुष्य अधर्म से बचता है और धर्म को सुरक्षित रखने में समर्थ होता है-ईश्वर का भय, शास्त्र का शासन, कुल मर्यादाओं के टूटने का डर, राज्य का कानून और शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका। इनमें ईश्वर और शास्त्र सर्वथा सत्य होने पर भी वे श्रद्धा पर निर्भर करते हैं, प्रत्यक्ष हेतु नहीं हैं। राज्य के कानून प्रजा के लिये ही प्रधनतया होते हैं; जिनके हाथों में अधिकार होता है, वे उन्हें प्रायः नहीं मानते। शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका अधिकतर व्यक्तिगत रूप में हुआ करती है। एक कुल-मर्यादा ही ऐसी वस्तु है, जिसका सम्बन्ध सारे कुटुम्ब के साथ रहता है। जिस समाज या कुल में परम्परा से चली आती हुई शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएँ नष्ट हो जाती हैं, वह समाज या कुल बिना लगाम के मतवाले घोड़ों के समान यथेच्छाचारी हो जाता है। यथेच्छाचार किसी भी नियम को सहन नहीं कर सकता, वह मनुष्य को सर्वथा उच्छलंग बना देता है। जिस समाज के मनुष्यांे में इस प्रकार की उच्छलंगता आ जाती है, उस समाज या कुल में स्वाभाविक ही सर्वत्र पाप छा जाता है।
अधर्मामिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीपु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकरः ।। 41।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-कुल धर्म के नाश हो जाने से जब कुल के स्त्री-पुरुष उच्छलंग हो जाते हैं; तब उनकी प्रायः सभी क्रियाएँ अधर्मयुक्त होने लगती हैं; इससे पाप अत्यन्त बढ़कर सारे समाज में फैल जाता है, सर्वत्र पाप छा जाने से समाज के स्त्री-पुरुषों की दृष्टि में किसी भी मर्यादा का कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता और उनका पालन करना तो दूर रहा, वे उनको जानने की भी चेष्टा नहीं करते; और कोई उन्हें बतलाता है तो उसकी दिल्लगी उड़ाते हैं या उससे द्वेष करते हैं। ऐसी अवस्था में पवित्र सती-धर्म का, जो समाज-धर्म की रक्षा का आधार है, अभाव हो जाता है। सतीत्व का महत्व खोकर पवित्र कुल की स्त्रियाँ घृणित व्यभिचार-दोष से दूषित हो जाती हैं। उनका विभिन्न वर्णों के पर पुरुषों के साथ संयोग होता है। माता और पिता के भिन्न-भिन्न वर्णों के होने से जो सन्तान उत्पन्न होती है, वह वर्णशंकर होती है। इस प्रकार सहज ही कुल की परम्परागत पवित्रता बिल्कुल नष्ट हो जाती है।
शंकरो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्योषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।। 42।।
प्रश्न-‘कुलघाती’ किनको कहा गया है और इस श्लोक में ‘कुलस्य’ पद के साथ ‘च’ अव्यय का प्रयोग करके क्या सूचित किया गया है?
उत्तर-‘कुलघाती’ उनको कहा गया है, जो युद्धादि में अपने कुल का संहार करते हैं और ‘कुलस्य’ पद के साथ ‘च’ अव्यय का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि वर्णसंकर सन्तान केवल उन कुलधातियों को ही नरक पहुँचाने में कारण नहीं बनती, वह उनके समस्त कुल को नरक में ले जाने वाली होती है।
प्रश्न-‘लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं’ इसका क्या भाव है?
उत्तर-श्राद्ध में पिण्डदान किया जाता है और सम्बन्ध-वर्णसंकर कारक दोषों से क्या हानि होती है, पितरों के निमित्त ब्राह्मण-भोजनादि कराया जाता है वह ‘पिण्डक्रिया’ है और तर्पण में जो जलांजलि दी जाती है वह ‘उदरक्रिया’ है; इन दोनों के समाहार को ‘पिण्डदक क्रिया’ कहते हैं। इन्हीं का नाम श्राद्ध-तर्पण है। शास्त्र और कुल-मर्यादा को जानने-मानने वाले लोग श्राद्ध-तर्पण किया करते हैं। परन्तु कुलधातियों के कुल में धर्म के नष्ट हो जाने से जो वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, वे अधर्म से उत्पन्न और अधर्मामिभूत होने से प्रथम तो श्राद्ध-तर्पणादि क्रियाओं को जानते ही नहीं, कोई बतलाता भी है तो श्रद्धा न रहने से करते नहीं और यदि कोइ्र करते भी हैं तो शास्त्र-विधि के अनुसार उनका अधिकार न होने से वह पितरों को मिलती नहीं। इस प्रकार जब पितरों को सन्तान के द्वारा पिड और जल नहीं मिलता तब उनका पतन हो जाता है।
दोषैरेतैः कुलन्घानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। 43।।
प्रश्न-‘इन वर्णसंकरकारक दोषा’ से किन दोषों की बात कही गयी है?
उत्तर-उपर्युक्त पदों से उन दोषों की बात कही गयी है जो वर्णसंकर की उत्पत्ति में कारण है। वे दोष है-
(1) कुल का नाश, (2) कुल के नाश से कुलधर्म का नाश तथा (3) पापों की वृद्धि और (4) पापों की वृद्धि से कुल-स्त्रियों व्यभिचारादि दोषों से दूषित होना। इन्हीं चार दोषों से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है।
प्रश्न-‘सनातन कुल धर्म’ और ‘जाति धर्म’ में क्या अन्तर है तथा उपर्युक्त दोषों से इनका नाश कैसे होता है? उत्तर-वंश परम्परागत सदाचार की मर्यादाओं का नाम ‘सनातन कुलधर्म’ है। चालीसवें श्लोक में इनके साथ ‘सनातनाः’ विशेषण दिया गया है और यहाँ इनके साथ ‘शाश्वताः’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। वेद-शास्त्रोक्त ‘वर्णधर्म’ का नाम ‘जातिधर्म; है। कुल की श्रेष्ठ मर्यादाओं के जानने और चलाने वाले बड़े-बूढ़ों का अभाव होने से जब ‘कुलधर्म’ नष्ट हो जाते हैं और वर्णसंकरता कारक दोष बढ़ जाते हैं, तब ‘जाति धर्म’ भी नष्ट हो जाता है। क्योंकि वर्णेत्तर के संयोग से उत्पन्न संकर सन्तान में वर्ण-धर्म नहीं रह सकता। इसी प्रकार वर्णसंकर कारक दोषों से इन धर्मों का नाश होता है।
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