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अग्निदेव ने अर्जुन को दिया था गाण्डीव

अग्निदेव ने अर्जुन को दिया था गाण्डीव

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त हो गया, इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर-अर्जुन ने जब चारों ओर अपने उपर्युक्त स्वजन-समुदाय को देखा और यह सोचा कि इस युद्ध में इन सबका संहार हो जायगा, तब बन्धु स्नेह के कारण उनका हृदय काँप उठा और उसमें युद्ध के विपरीत एक प्रकार की करुणाजनित कायरता का भाव प्रबल रूप से जागृत हो गया। यही ‘अत्यन्त करुणा’ है जिसको संजय ने ‘परया कृपया’ कहा है और इस कायरता के आवेश से अर्जुन अपने क्षत्रियोचित वीर स्वभाव को भूलकर अत्यन्त मोहित हो गये, यही उनका उस ‘करुणा से युक्त हो जाना है।’

प्रश्न-‘इदम’ पद से अर्जुन के कौन-से वचन समझने चाहिए?

उत्तर-‘इदम’ पद का प्रयोग अगले श्लोक से लेकर छियालासवें श्लोक तक अर्जुन ने जो-जो बातें कही हैं, उन सभी के लिए किया गया है।

अर्जुन उवाच

दृष्टेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सं समुपस्थितम् ।। 28।।

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपयुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्व जायते।। 29।।

प्रश्न-अर्जुन के इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-यहाँ अर्जुन का यह भाव है कि इस महायुद्ध का महान्् भयंकर परिणाम होगा। ये सारे छोटे और बड़े सगे-सम्बन्धी तथा आत्मीय-स्वजन, जो इस समय मेरी आँखों के सामने हैं, मौत के मुँह में चले जायेंगे। इस बात को सोचकर मुझे इतनी मार्मिक पीड़ा हो रही है, मेरे हृदय में इतना भयंकर दाह और भय उत्पन्न हो गया है कि जिसके कारण मेरी शरीर की ऐसी दुरवस्था हो रही है।

गाण्डीवं óसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।

न च शंकोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।। 30।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?

उत्तर-करुणाजनित कायरता से अर्जुन की बड़ी शोचनीय स्थिति हो गयी है, उसी का वर्णन करते हुए वे कह रहे हैं कि ‘मेरे सारे अंग अत्यन्त शिथिल हो गये हैं, हाथ ऐसे शक्तिशून्य हो रहे हैं कि उनसे गाण्डीव धनुष को चढ़ाकर बाण चलाना तो दूर रहा, मैं उसको पकड़े भी नहीं रह सकता, वह हाथ से छूटा जा रहा है। युद्ध के भावी परिणाम की चिन्ता ने मरे मन में इतनी जलन पैदा कर दी है कि उसके कारण मेरी चमड़ी भी जल रही है और भीषण मानसिक पीड़ा के कारण मेरा मन किसी बात पर क्षण भर भी स्थिर नहीं हो रहा है। तथा इसके परिणामस्वरूप मेरा मस्तिष्क भी घूमने लगा है, ऐसा मालूम होता है कि मैं अभी-अभी मूच्र्छित होकर गिर पड़ूँगा।’

प्रश्न-अर्जुन का गाण्डीव धनुष कैसा था? और वह उसे कैसे मिला था?

उत्तर-अर्जुन का गाण्डीव धनुष दिव्य था। उसका आकार ताल के समान था (महा0 उद्योग 161)। गाण्डीव का परिचय देते हुए बृहन्नला के रूप में स्वयं अर्जुन ने उत्तर कुमार से कहा था-‘यह अर्जुन का जग प्रसिद्ध धनुष है। यह स्वर्ण से मँढ़ा हुआ, सब शंखों में उत्तम और लाख आयुधों के समान शक्तिमान् है। इसी धनुष अर्जुन ने देवता और मनुष्यों पर विजय प्राप्त की है। इस विचित्र, रंग-बिरंगे, अद्भुत, कोमल और विशाल धनुष का देवता, दानव और गन्धर्वों ने दीर्घकाल तक आराधन की है, इस परम दिव्य धनुष को ब्रह्माजी ने एक हजार वर्ष, प्रजापति ने पाँच सौ तीन वर्ष, इन्द्र ने पचासी वर्ष, चन्द्रमा ने पाँच सौ वर्ष और वरुणदेव ने सौ वर्ष तक रक्खा था।’ (महा0 विराट0 43) यह अर्जुन को खाण्डव वन जलाने के समय अग्निदेव ने वरुण से दिलाया था (महा0 आदि0 225)।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाइवे।। 31।।

प्रश्न-मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ, इसका क्या भाव है?

उत्तर-किसी भी क्रिया के भावी परिणाम की सूचना देने वाले शकुनादि चिन्हों को लक्षण कहा जाता है, श्लोक में ‘निमित्तानि’ पद इन्हीं लक्षणों के लिये आया है। अर्जुन लक्षणों को विपरीत बतलाकर यह भाव दिखला रहे हैं कि असमय में ग्रहण होना, धरती का काँप उठना और आकाश से नक्षत्रों का गिरना आदि बुरे शकुनों से भी यही प्रतीत होता है कि इस युद्ध का परिणाम अच्छा नहीं होगा। इसलिये मेरी समझ से युद्ध न करना ही श्रेयस्कर है।

प्रश्न-युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अर्जुन के कथन का भाव यह है कि युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों के मारने से किसी प्रकार का भी हित होने की सम्भावना नहीं है; क्योंकि प्रथम तो आत्मीय स्वजनों के मारने से चित्त में पश्चाताप जनित क्षोम होगा, दूसरे उनके अभाव में जीवन दुःमय हो जायगा और तीसरे उनके मारने से महान् पाप होगा। इन दृष्टियों से न इस लोक में हित होगा और न परलोक में ही। अतएव मेरे विचार से युद्ध करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।

न कांगे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजींवितेन वा।। 32।।

प्रश्न-अर्जुन के इस कथन का स्पष्टीकरण कीजिये।

उत्तर-अर्जुन अपेन चित्त की स्थिति का चित्र खींचते हुए कहते हैं कि हे कृष्ण! इन आत्मीय स्वजनों को मारने पर जो विजय, राज्य और सुख मिलेंगे, मैं उन्हें जरा भी नहीं चाहता। मुझे तो यही प्रतीत होता है कि इनके मारने पर हमें इस लोक और परलोक में संताप ही होगा, फिर किसलिये युद्ध किया जाय और इन्हें मारा जाय? क्या होगा ऐसे राज्य और भोगों से? मेरी समझ से तो इन्हीं मारकर जीने में भी कोई लाभ नहीं है।

येषामर्थे कांगितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।। 33।।

प्रश्न-अर्जुन के इस कथन का क्या तात्पर्य है?

उत्तर-यहाँ अर्जुन यह कह रहे हैं कि मुझको अपने लिये तो राज्य, भोग और सुखादि की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूँ कि न तो इनमें स्थायी आनन्द ही है और न ये स्वयं ही नित्य हैं। मैं तो इन भाई-बन्धु आदि स्वजनों के लिये राज्यादि की इच्छा करता था, परन्तु मैं देवता हूँ कि ये सब युद्ध मंे प्राण देने के लिये तैयार खड़े हैं। यदि इन सबकी मृत्यु हो गयी तो फिर राज्य, भोग और सुख आदि किस काम आयेंगे। इसलिये किसी प्रकार भी युद्ध करना उचित नहीं है।

आचार्यः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।। 34।।

प्रश्न-अर्जुन इन सम्बन्धियों के नाम लेकर क्या कहना चाहते हैं? उत्तर-आचार्य, ताऊ, चाचे आदि सम्बन्धियों की बात तो संक्षेप में पहले कही जा चुकी है। यहाँ ‘श्यालाः‘ शब्द से धृष्टद्युम्न शिखण्डी और सुरथ आदि का तथा ‘सम्बन्धिनः‘ से जयदथयादि का स्मरण कराकर वे यह कहना चाहते हैं कि संसार में मनुष्य अपने प्यारे सम्बन्धियों के ही लिए ही तो भोगों का संग्रह किया करता है; जब ये ही सब मारे जाएँगे, तब राज्य-भोगों की प्राप्ति से होगा ही क्या? ऐसे राज्य-भोग तो दुःख के ही कारण होंगे।
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