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शिष्यत्व के साथ शरणत्व भी जरूरी

शिष्यत्व के साथ शरणत्व भी जरूरी

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
शिष्यों के कई प्रकार होते हैं। जो शिष्य उपदेश तो गुरु से ग्रहण करते हैं परन्तु अपने पुरूषार्थ का अहंकार रखते है; या अपने सद्गुरू को छोड़कर दूसरों पर भरोसा रखते हैं, वे गुरूकृपा का यथार्थ लाभ नहीं उठा सकते। अर्जुन इसीलिये शिष्यत्व के साथ ही अपने में अनन्य शरणत्व की भावना करके कहते हैं कि भगवन्! मैं केवल शिष्य ही नहीं हूँ आपके शरण भी हूँ। ‘प्रपन्न शब्द का भावार्थ है-भगवान् को अत्यन्त समर्थ और परम श्रेष्ठ समझकर उनके प्रति अपने को समर्पण कर देना। इसी का नाम ‘शरणागति’, ‘आत्मनिपेक्ष’ या ‘आत्म समर्पण’ है। भगवान् सर्व शक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, अनन्त गुणों के अपार समुद्र, सर्वाधिपति, ऐश्वर्य-माधुर्य, धर्म, शौर्य, ज्ञान, वैराग्य आदि के अनन्त आकर, क्लेश, कर्म, संशय और भ्रमादिका सर्वथा नाश करने वाले, परम प्रेमी, परम सुदृढ़, परम आत्मीय, परम गुरू और परम महेश्वर हैं-ऐसा विश्वास करके अपने को सर्वधा निराश्रय, निरवलम्ब, निर्बुद्धि, निर्बल और निःसत्व मानकर उन्हीं के आश्रय, अवलम्ब, ज्ञान, शक्ति, सत्व और अतुलनीय शरणागत-वत्सलता का दृढ़ और अनन्य भरोसा करके अपने को सब प्रकार से सदा के लिये उन्हीं के चरणों पर न्योछावर कर देना और र्निमेष नेत्रों से उनके मनोनयनाभिराम मुखचन्द्र की ओर निहारते रहने की तथा जड़ कठपुतली की भाँति नित्य-निरन्तर उनके संकेत पर नाचते रहने की एकमात्र लालसा से उनका अनन्य चिन्तन करना ही भगवान् के प्रपन्न होना है। अर्जुन चाहते हैं कि मैं इसी प्रकार भगवान् के शरण हो जाऊँ और इसी भावना से भावित होकर वे कहते हैं-‘भगवन्’! मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरण हूँ, आप मुझे शिक्षा दीजिये।’ ‘ते और त्वाम्’ पदों का प्रयोग करके अर्जुन यही कह रहे हैं अर्जुन की यह शरणागति की सर्वोत्तम और सच्ची भावना जब अठारहवें अध्याय के पैसठवें और छाछठवें श्लोक में भगवान् के सर्वगुह्यतम उपदेश के प्रभाव से सच्ची शरणागति के रूप में परिणत हो जायेगी और अर्जुन जब अपने को उनके कथनानुसार चलने के लिये तैयार कर सकेंगे, तभी गीता का उपदेश समाप्त हो जायगा। वस्तुतः इसी श्लोक से गीता की साधना का आरम्भ होता है, यही उपदेश के उपक्रम का बीज है और ‘सर्वधर्मान् परिस्जय’ श्लोक में ही इस साधना की सिद्धि है, वही उपसंहार है।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्वं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। 8।।

प्रश्न-इस श्लोक में अर्जुन के कथन का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में अर्जुन ने भगवान् से शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की है, इसलिए यहाँ यह भाव प्रकट करते हैं कि आपने पहले मुझे युद्ध करने के लिये कहा है; किन्तु उस युद्ध का अधिक-से-अधिक फल विजय प्राप्त होने पर इस लोक में पृथ्वी का निष्कण्टक राज्य पा लेना है और विचार करने पर यह बात मालूम होती है कि इस पृथ्वी के राज्य की तो बात ही क्या, यदि मुझे देवताओं का आधिपत्य भी मिल जाय तो वह भी मेरे इस इन्द्रियों को सुखा देने वाले शोक को दूर करने में समर्थ नहीं है। अतएव मुझे कोई ऐसा निश्चित उपाय बतलाइये जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर करके मुझे सदा के लिये सुखी बना दे।

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्य इति गोविन्दसुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। 9।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इस श्लोक में संजय ने धृतराष्ट्र से यह कहा है कि उपर्युक्त प्रकार से भगवान् के शरण होकर शिक्षा देने के लिये उनसे प्रार्थना करके और अपने विचार प्रकट करके अर्जुन यह कहकर कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ चुप हो गये।

प्रश्न-‘गोविन्द’ शब्द का क्या अर्थ है?

उत्तर-‘गोमिर्वेदवाक्यौर्विद्यते लभ्यते इति गोविन्द;’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार वेद-वाणी के द्वारा भगवान् के स्वरूप की उपलब्धि होती है, इसलिये उनका नाम ‘गोविन्द’ है। गीता में भी कहा है-‘वेदैश्व सर्वेरहमेव वेद्य;’ सम्पूर्ण वेदों के द्वारा जानने योग्य में ही हूँ।’

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ।। 10।।

प्रश्न-‘उभयोः सेनयोः मध्ये विषीदन्तम् विशेषण के सहित ‘तम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि जिन अर्जुन ने पहले बड़े साहस के साथ अपने रथ को दोनेां सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिए भगवान् से कहा था, वे ही अब दोनों सेनाओं में स्थित स्वजन समुदाय को देखते ही मोह के कारण व्याकुल हो रहे हैं; उन्हीं अर्जुन से भगवान् कहने लगे।

प्रश्न-‘हँसते हुए-से यह वचन बोले’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से संजय इस बात का दिग्दर्शन कराते हैं कि भगवान् ने क्या कहा और किस भाव से कहा। अभिप्राय यह है कि ‘अर्जुन उपर्युक्त प्रकार से शूरवीरता प्रकट करने की जगह उल्टा विषाद कर रहे हैं तथा मेरे शरण होकर शिक्षा देने के लिये प्रार्थना करके मेरा निर्णय सुनने के पहले ही युद्ध न करने की घोषणा भी कर देते हैं-यह इनकी कैसी गलती।’ इस भाव से मन-ही-मन हँसते हुए भगवान् (जिनका वर्णन आगे किया जाता है, वे वचन) बोले।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्व भाष से।

गतासूनगतासंश्व नानुशोचन्ति पण्डितः ।। 11।।

प्रश्न-अर्जुन के कौन-से वचनों को लक्ष्य करके भगवान् ने यह बात कही है जिनका शोक नहीं करना चाहिये, उनके लिये तुम शोक कर रहे हो? उत्तर-दोनों सेनाओं में अपने चाचा, ताऊ, बन्धु, बान्धव और आचार्य आदि को देखते ही उनके नाश की आशंका से विषाद करते हुए अर्जुन ने जो प्रथम अध्याय के अट्ठाइसवें, उन्नीतसवें और तीसवें श्लोकों में अपनी स्थिति का वर्णन किया है, पैंतालीसवें श्लोेक में युद्ध के लिए तैयार होने की क्रिया पर शोक प्रकट किया है और सैंतालीसवें श्लोक में जो संजय ने उनकी स्थिति का वर्णन किया है, उनको लक्ष्य करके यहाँ भगवान् ने यह बात कही है कि ‘अर्जुन के लिये शोक नहीं करना चाहिये उनके लिये तुम शोक कर रहे हो।’ यहीं से भगवान् के उपदेश का उपक्रम होता है, जिसका उपसंहार 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में हुआ है।
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