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कर्मफल का हेतु न बनो अर्जुन: कृष्ण

कर्मफल का हेतु न बनो अर्जुन: कृष्ण

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-कर्मों के फलों में तेरा कभी अधिकार नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य कर्मों का फल प्राप्त करने में कभी किसी प्रकार भी स्वतंत्र नहीं है; उसके कौन से कर्म का फल क्या होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किसी प्रकार प्राप्त होगा? इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है अथवा न उससे बच ही सकता है। मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और ही है। बहुत मनुष्य नाना प्रकार के भोगों को भोगना चाहते हैं, पर इसके लिये सुयोग मिलना, उनके हाथ की बात नहीं है। अनेक तरह के संयोग-वियोग वे नहीं चाहते, पर बलात् से हो जाते है; कर्मों के फल का विधान करना सर्वथा विधाता के अधीन है; मनुष्य का उसमें कुछ भी उपाय नहीं चलता। अवश्य ही पुत्रष्टि आदि शास्त्रीय यज्ञानुष्ठानों के सांगोपांग पूर्ण होने पर उनके फल प्राप्त होने का निश्चित विधान है और वैसे कर्म सकाम मनुष्य कर भी सकते हैं; परन्तु उनका यह विहित फल भी कर्मकर्ता के अधीन नहीं है, देवता के ही अधीन है। इसलिये इस प्रकार इच्छा करना कि अमुक वस्तु की, धनैश्वर्य की, मान-बड़ाई या प्रतिष्ठा की अथवा स्वर्ग आदि लोकों की मुझे प्राप्ति हो, एक प्रकार से अज्ञान ही है। साथ ही ये सब अत्यन्त ही तुच्छ तथा अल्पकाल स्थायी अनित्य पदार्थ हैं, अतएव तुमको तो किसी भी फल की कामना नहीं करनी चाहिये।

प्रश्न-तो क्या मुक्ति की कामना भी नहीं करनी चाहिये?

उत्तर-मुक्ति की कामना शुभेच्छा होने के कारण मुक्ति में सहायक है; यद्यपि इस इच्छा का भी न होना उत्तम है, परन्तु भगवान् के तत्त्व और मर्म को यथार्थ रूप से जाने बिना इस इच्छा रहित होकर और ईश्वराज्ञा के पालन को कर्तव्य समझकर हेतु रहित कर्मों का आचरण करना बहुत ही कठिन है। अतएव कर्मों का आचरण करना बहुत ही कठिन है। अतएवं मुक्ति की कामना करना अनुचित नहीं है। मुक्ति की इच्छा न रखने से शीघ्र मुक्ति की प्राप्ति होगी, इस प्रकार का भाव भी छिपी हुई मुक्ति की इच्छा ही है।

प्रश्न-‘कर्म फलका हेतु बनना’ क्या है? और अर्जुन को कर्मफल का हेतु न बनने के लिये कहने का क्या भाव है?

उत्तर-मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा किये हुए शास्त्रविहित कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति, वासना आशा, स्पृहा और कामना करना ही कर्म फल का हेतु बनना है; क्योंकि जो मनुष्य उपर्युक्त प्रकार से कर्मों में और उनके फल में आसक्त होता है उसी को उन कर्मों का फल मिलता है; कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देने वाले को नहीं। अतः अर्जुन को कर्मफल का हेतु न बनने के लिये कहकर भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि परम शान्ति की प्राप्ति के लिये तुम अपने कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके करो।

प्रश्न-उपर्युक्त प्रकार से ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करके कर्म करने वाला मनुष्य क्या पाप कर्मों के फल का भी हेतु नहीं बनता?

उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से कर्म करने वाला मनुष्य किसी प्रकार के भी कर्मों के फल का हेतु नहीं बनता। उसके शुभ और अशुभ सभी कर्मों में फल देने की शक्ति का अभाव हो जाता है; क्योंकि पाप कर्मों में प्रवृ़ित्त का हेतु आसक्ति ही है; अतः आसक्ति, ममता और कामना का सर्वथा अभाव हो जाने के बाद नवीन पाप तो उससे बनते नहीं और पहले के किये हुए पाप ममता, आसक्ति रहित कर्मों के प्रभाव से भस्म हो जाते हैं। इस कारण वह पाप कर्मों के फल का हेतु नहीं बनता और शुभ कर्मों के फल का वह त्याग कर देता है, इस कारण उनके भी फल का हेतु नहीं बनता। इस प्रकार कर्म करने वाले मनुष्य के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं और वह अनामय पद को प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न-तेरी कर्म न करने में आसक्ति न हो, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार शास्त्र विहित कर्मों से विपरीत निषिद्ध कर्मोंं का आचरण करना कर्माधिकार का दुरुपयोग करना है, उसी प्रकार वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिसके लिये जो अवश्य कर्तव्य है, उसका न करना भी उस अधिकार का दुरुपयोग करना है। विहित कर्मों का त्याग किसी प्रकार भी न्यायसंगत नहीं है। अतः इनका मोहपूर्वक त्याग करना तामस त्याग है और शारीरिक क्लेश के भय से त्याग करना राजस त्याग है। विहित कर्मों का अनुष्ठान बिना किये मनुष्य कर्मयोग की सिद्धि को भी नहीं पा सकता। अतः तुम्हारी किसी भी कारण से विहित कर्मों का अनुष्ठान न करने में आसक्ति नहीं होनी चाहिये।

योगस्थः कुरु कर्माणि सडंग त्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धîोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 48।।

प्रश्न-सिद्धि और असिद्धि में सम होने पर आसक्ति का त्याग तो उसमें आ ही जाता है; फिर यहाँ अर्जुन को आसक्ति का त्याग करने के लिये कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इस श्लोक में भगवान् कर्मयोग के आचरण की प्रक्रिया बतलायी है। कर्मयोग का साधक जब कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का त्याग कर देता है, त उसमें राग-द्वेष का और उनसे होने वाले हर्ष-शोकादि का अभाव हो जाता है। ऐसा होने से ही वह सिद्धि और असिद्धि में सम नहीं रहा जा सकता। तथा सिद्धि और असिद्धि में अर्थात् किये जाने वाले कर्म के पूर्ण होने और न होने में तथा उसके अनुकूल और प्रतिकूल परिणाम में सम रहने की चेष्टा रखने में अन्त में राग-द्वेष आदि का अभाव होता है। इस प्रकार आसक्ति के त्याग का और समता का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं दोनों परस्पर एक-दूसरे के सहायक है; इसलिये भगवान् ने यहाँ आसक्ति का त्याग करके और सिद्धि-असिद्धि में सम होकर कर्म करने के लिये कहा है।

प्रश्न-जब समत्व का ही नाम योग है, तब सिद्धि और असिद्धि में सम होकर कर्म करने के अन्तर्गत ही योग में स्थित होने की बात आ जाती है; फिर योग में स्थित होने के लिये अलग कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-कर्म की सिद्धि और असिद्धि में समता रखते-रखते ही मनुष्य की समभाव में अटल स्थिति होती है और समभाव का स्थिर हो जाना ही कर्मयोग की अवधि है। अतः यहाँ योग में होकर कर्म करने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि केवल सिद्धि और असिद्धि में ही समत्व रखने से काम नहीं चलेगा, प्रत्येक क्रियांक करते समय भी तुमको किसी भी पदार्थ में, कर्म में या उसके फल में अथवा किसी भी प्राणी में विषमभाव न रखकर नित्य समभाव में स्थित रहना चाहिये।-
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