सखा से शिष्य बन गये अर्जुन
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छेªयः स्यान्निश्वितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। 7।।
प्रश्न-‘कार्पण्यदोष क्या है और अर्जुन ने जो अपने को उससे ‘उपहतस्वभाव’ कहा है, इसका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-‘कृपण’ शब्द विभिन्न अर्थों में व्यवहृत होता है-
1-जिसके पास पर्याप्त धन है, परन्तु जिसकी धन में इतनी प्रबल आसक्ति और लोभ है कि जो दान और भोगादि के न्यायसंगत और उपयुक्त अवसरों पर भी एक पैसा खर्च नहीं करना चाहता, उस कंजूस को कृपण कहते हैं।
2-मनुष्य जीवन का शास्त्र सम्मत और संतजनानुमोदित प्रधान लक्ष्य है ‘भगवान् के तत्व को जानकर उन्हें प्राप्त कर लेना’ जो मनुष्य इस लक्ष्य को भुलाकर विषय-भोगों में ही अपना जीवन खो देता है, उस ‘मूर्ख’ को भी कृपण कहते हैं। श्रुति कहती है-
यो वा एतदक्षरं गाग्र्यविदित्वाऽस्माल्लाकत्प्रैति स कृपणः।
‘हे गार्गि! इस अविनाशी परमात्मा को बिना जाने ही जो भी कोई इस लोक से मरकर जाता है, वह कृपण है।’
भगवान ने भी भोगैश्वर्य में आसक्त फल की वासना वाले मनुष्यों को ‘कृपण’ कहा है। (‘कृपणाः फलहेतबः)।
3-सामान्यतः दीनस्त्र भाव का वाचक भी ‘कृपण’ शब्द है।
यहाँ अर्जुन में जो ‘कार्पण्य’ है, वह न तो लोभजनित कंजूसी है और न भोगासक्तिरूप कृपणता ही है। क्योंकि अर्जुन स्वभाव से ही अत्यन्त उदार, दानी एवं इन्द्रिय विजयी पुरुष हैं। यहाँ भी वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ‘मुझे अपने लिए विजय, राज्य या सुख की आकांक्षा नहीं है; जिनके लिये ये वस्तुएँ अपेक्षित हैं, वे सब आत्मीय-जन तो यहाँ मरने के लिये खड़े हैं। इस पृथ्वी की तो बात ही क्या है, मैं तीनों लोकों के राज्यों के लिये भी दुर्योधनादि को नहीं मारना चाहता। समस्त भूमण्डल का निष्कंटक राज्य और देवताओं का आधिपत्य भी मुझे शोक रहित नहीं कर सकते (2/8)। जो इतना त्याग करने को तैयार है, वह कंजूस या भोगासक्त नहीं हो सकता। दूसरे, यहाँ ऐसा अर्थ मानना इस प्रकरण के भी सर्वथा विरुद्ध है।
यहाँ अर्जुन का यह कार्पण्य एक प्रकार का दैन्य ही है, जो करुणायुक्त कायरता और शोक के रूप में प्रकट हो रहा है। संजय ने प्रथम श्लोक में अर्जुन के लिये ‘कृपयाविष्टम्’ पद का प्रयोग करके इस करुणा जनति कायरता का ही निर्देश किया है। तीसरे श्लोक में स्वयं श्रीभगवान् ने भी ‘क्लैव्यम्’ पद का प्रयोग करके इसी की पुष्टि की है। अतएव यही प्रतीत होता है कि अर्जुन का यह कार्पण्य बन्धुनाश की आशंका से उत्पन्न करुणायुक्त कायरता ही है।
अर्जुन आदर्श क्षत्रिय हैं, स्वाभाविक ही शूरवीर हैं; उनके लिये कायरता दोषी ही है, चाहे वह किसी भी कारण से उत्पन्न हो। इसी से अर्जुन इसे ‘कार्पण्य-दोष’ कहते हैं।
इस कार्पण्य दोष से अर्जुन का अतुलनीय शौर्य, वीर्य, धैर्य, चातुर्य, साहस और पराक्रमादि से सम्पन्न क्षत्रिय स्वभाव नष्ट सा हो गया है; इसी से उनके अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, अंग काँप रहे हैं, शरीर में जलन-सी हो रही है और मन भ्रमित-सा हो रहा है। करुणायुक्त कायरता के आवेश से अर्जुन अपने में इन स्वभाव विरुद्ध लक्षणों को देखकर कहते हैं कि ‘मैं कार्पण्य दोष से उपहृत स्वभाव हो गया हूँ।’
प्रश्न-अर्जुन ने अपने को ‘धर्मसम्मूढ़ चेताः; क्यों कहा?
उत्तर-धर्म-अधर्म या कर्तव्य-अकर्तव्य का यथार्थ निर्णश् करने में जिसका अन्तःकरण सर्वथा असमर्थ हो गया हो उसे ‘धर्मसम्मूढ़चेताः; कहते हैं। अर्जुन का चित्त इस समय भयानक धर्मसंकट में पड़ा है; वे एक ओर प्रजापालन, क्षात्रधर्म, स्वत्वसंरक्षण आदि की दृष्टि से युद्ध को धर्म समझकर उसमें लगना उचित समझते हैं, और दूसरी ओर उनके चित्त की वर्तमान कार्पण्य वृत्ति युद्ध के नाना प्रकार के भयानक परिणाम दिखाकर उन्हें भिक्षा वृत्ति, संन्यास और वनवास की ओर प्रवृत्त करना चाहती है। चित्त इतना करुणा विष्ट है कि वह बुद्धि को किसी निर्णय पर पहुँचने ही नहीं देता, इसी से अपने को किकंर्तव्यविमूढ़ पाकर अर्जुन ऐसा कहते हैं।
प्रश्न-‘निश्चिंत श्रेयः’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-कौरवों की भीष्म-द्रोण- कर्णादि विश्वविख्यात अजेय शूरवीरों से संरक्षित अपनी सेना से कहीं बड़ी सेना को देखकर अर्जुन डर गये हों और युद्ध में अपने विजय की संभावना से सर्वथा निराश होकर अपना कल्याण युद्ध करने में है या न करने में, इस उद्देश्य से ‘श्रेयः’ शब्द का प्रयोग करके जय-पराजय के सम्बन्ध में श्री-भगवान् से एक निश्चित निर्णय पूछते हों, ऐसी बात यहाँ नहीं है। यहाँ तो उनके चित्त में बन्धु-स्नेह जाग उठा है। और बन्धुनाश जनित एक बहुत बड़े पाप की सम्भावना हो गयी है, जिसे वे अपने परम कल्याण में महान् प्रति बन्धक समझते हैं और दूसरी ओर मन में यह भावना भी आ रही है कि क्षत्रिय धर्म समस्त युद्ध का जो मैं त्याग कर रहा हूँ, कहीं यही अधर्म हो और मेरे परम कल्याण में बाधक हो जाय, ऐसी बात तो नहीं है। इसी से वे ‘निश्चित श्रेय’ की बात पूछते हैं। उनका यह ‘निश्चित श्रेय’ जय-पराजय से सम्बन्ध नहीं रखता, इसका लक्ष्य भगवान प्राप्ति रूप परम कल्याण है। अर्जुन यह कहते हैं कि भगवन् ! मैं कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हूँ। आप ही निश्चित रूप से बतलाइये-मेरे परम कल्याण का साधन कौन-सा है?
प्रश्न-मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शरणागत को आप शिक्षा दीजिये-इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रिय सखा थे। आध्यात्मिक तत्व की बात दूसरी हो सकती है, परन्तु व्यवहार में अर्जुन के साथ भगवान् का प्रायः सभी स्थलों में बराबरी का ही सम्बन्ध था। खाने, पीने, सोने और जाने-आने में सभी जगह भगवान् उनके साथ समान बर्ताव करते थे। और भगवान् के श्रेष्ठत्व के प्रति मन में श्रद्धा और सम्मान होने पर भी अर्जुन उनके साथ बराबरी का ही व्यवहार करते थे। आज अर्जुन को अपनी ऐसी शोचनीय दशा देखकर यह अनुभव हुआ कि मैं वस्तुतः इनसे बराबरी करने योग्य नहीं हूँ। बराबरी में सलाह मिलती है, उपदेश नहीं मिलता; प्रेरणा होती है, बल पूर्वक अनुशासन नहीं होता। मेरा काम आज सलाह और प्रेरणा से नहीं चलता। मुझे तो गुरु की आवश्यकता है जो उपदेश करे और बलपूर्वक अनुशासन करके श्रेय के मार्ग पर लगा दे तथा मेरे शोक-मोह को सर्वथा नष्ट करके मुझे परम कल्याण की प्राप्ति करवा दे। और श्रीकृष्ण से बढ़कर गुरू मुझे कौन मिल सकता है। परन्तु गुरू की उपदेशामृत धारा तभी बरसती है, जब शिष्य रूपी क्षेत्र उसे ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत होता है। इसीलिये अर्जुन कहते हैं-‘भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ।
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