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सिद्धिदात्री की कृपा से होता है निर्वाण चक्र जागृत -अशोक “प्रवृद्ध”

सिद्धिदात्री की कृपा से होता है निर्वाण चक्र जागृत -अशोक “प्रवृद्ध”

नवदुर्गाओं में अंतिम व नवम शक्ति सिद्धिदात्री हैं। सिद्धिदात्री अर्थात सभी प्रकार की सिद्धि देने वाली देवी । पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार भगवती माता सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को समस्त प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। माता दुर्गा के इस रूप को शतावरी और नारायणी भी कहा जाता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ये सभी सिद्धियाँ इनसे ही उत्पन्न हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है। लोक मान्यता है कि माता सिद्धिदात्री संसार की इन सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने माँ सिद्धिदात्री की कृपा से ही इन सभी सिद्धियों को प्राप्त किया था, तथा इनकी ही अनुकम्पा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। और इसी कारण से वे लोक में अर्द्धनारीश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। चतुर्भुजा अर्थात चार भुजाओं वाली माँ सिद्धिदात्री का वाहन सिंह है। माँ सिद्धिदात्री सिंहवाहिनी, चतुर्भुजा तथा सर्वदा प्रसन्नवदना हैं। कमल पुष्प पर भी आसीन रहने वाली माँ सिद्धिदात्री की दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में भी कमलपुष्प है। इनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र, ऊपर वाली भुजा में गदा और बांयी तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है। पौराणिक व लोक मान्यतानुसार परम सौम्य चतुर्भुजी देवी सिद्धिदात्री अपनी ऊपरी दाईं भुजा में चक्र धारण कर संपूर्ण जगत का जीवन- चक्र चलाती है। नीचे वाली दाईं भुजा में गदा धारण कर दुष्टों का दलन करती हैं। ऊपरी बाईं भुजा में शंख धारण कर संपूर्ण जगत में धर्म स्थापित करती है, नीचे वाली बाईं भुजा में कमल के फूल से ये संपूर्ण जगत का पालन करती हैं। नाना प्रकार के स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित देवी रक्त वर्ण के वस्त्र धारण करती हैं। आदिशक्ति पराम्बा अपने सिद्धिदात्री रूप में सम्पूर्ण जगत को ऋद्धि- सिद्धि प्रदान करती हैं। कालपुरूष सिद्धांत के अनुसार कुण्डली में सिद्धिदायक व मोक्षदायक ग्रह केतु का संबंध द्वादश व द्वितीय भाव से होता है। अतः देवी सिद्धिदात्री की साधना का संबंध व्यक्ति के सौभाग्य, हानि, व्यय, सिद्धि, धन, सुख व मोक्ष से है। वास्तुशास्त्र के अनुसार केतु प्रधान देवी की दिशा आकाश है अर्थात उर्वर्ध। सिद्धिदात्री की साधना उन लोगों हेतु सर्वश्रेष्ठ है, जिनकी आजीविका का संबंध धर्म, सन्यास, कर्मकांड, ज्योतिष आदि से है। इनकी साधना से अष्टसिद्धि व नवनिधियों की प्राप्ति होती है, व्यक्ति का हानि से बचाव होता है, पारिवारिक सुख में वृद्धि होती है। इनका स्वरुप मां सरस्वती का भी स्वरुप माना जाता है। इनकी कृपा से अनंत दुःख रूप संसार से निर्लिप्त रहकर सारे सुखों का भोग करता हुआ भक्त मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्तोत्र व कवच का पाठ करने से निर्वाण चक्र जाग्रत हो जाता है।

उल्लेखनीय है कि समस्त प्रकार की सिद्धियों को देने वाली माता दुर्गा के नवें स्वरूप सिद्धिदात्री की पूजन -अर्चा नवरात्रि के नवें दिन किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। मान्यता है कि नवरात्रि के नवें दिन शाक्त ग्रन्थों में वर्णित शास्त्रीय विधि-विधान व पूर्ण निष्ठा के साथ सिद्धिदात्री की पूजा- अर्चा करने से भक्तों को समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। देवी दुर्गा के इस अंतिम स्वरुप को नव दुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष प्रदान करने वाला माना जाता है। जो श्वेत वस्त्रों में महाज्ञान और मधुर स्वर से भक्तों को सम्मोहित करती है। मां सि़द्धदात्री भक्तों की 26 विभिन्न इच्छाएं पूरी करती है। माँ के ज्योतिर्मयी स्वरूप का ध्यान भक्त की मेधा को श्रेष्ठकर्मों में प्रवृद्ध- प्रवृत्त करके भक्त की चेतना को उर्ध्वगामी बनाता है। यह उन्हें जीवनी शक्ति का संवर्धन करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि की सामर्थ्य प्रदान करता है। माँ के कल्याणकारी स्वरूप का ध्यान नैतिक रूप से सबल बनाकर त्याग व कर्तव्यनिष्ठा के मार्ग पर बढ़ते रहने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह कलुषित व नीरस जीवन से मुक्ति प्रदान करके उत्कृष्ट जीवन जीने की कला सिखाता है। माँ के देदीप्यमान स्वरूप का ध्यान आरोग्य व कांति प्रदान करके ध्येय की प्राप्ति में सतत चलते रहने की सामर्थ्य प्रदान करता है। यह आध्यात्मिक ज्ञान को जाग्रत करके आत्मकल्याण व आत्मोत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने की शक्ति प्रदान करता है। माता सिद्धिदात्री की उपासना के लिए उनसे सम्बन्धित निम्न मन्त्र उत्तम माना गया है-

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।

सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ।।

नवरात्रि के अंतिम दिन महानवमी पर दुर्गा पूजा महास्नान और षोडोपचार पूजा के साथ शुरू होती है। महानवमी पर मां दुर्गा को महिषाषुर मर्दिनी के रूप में पूजा जाता है। ऐसी मान्यता है कि महानवमी के दिन ही मां दुर्गा ने दुष्ट दैत्य महिषाषुर का संहार कर तीनों लोकों को उसके आतंक से मुक्त कराया था। लोक मान्यतानुसार नवदुर्गाओं में अंतिम माँ सिद्धिदात्री की पूजा -अर्चना करने वाले भक्तगण अन्य आठ दुर्गाओं की पूजा उपासना विधि-विधान के अनुसार करते हुए नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना में प्रवत्त होते हैं। मां सिद्धिदात्री का ध्यान- “ओम सिद्धिदात्रये देव्यै नमः ।“ मन्त्र से करना चाहिए। नौवें दिन का रंग लाल और पीला रंग माना गया है। खीर, पंचामृत, नारियल का नैवेद्य उत्तम माना गया है। सिद्धिदात्री की उपासना पूर्ण कर लेने से भक्तों और साधकों की लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती हैं। वह सभी सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और स्पृहाओं से ऊपर उठकर मानसिक रूप से माँ भगवती के दिव्य लोकों में विचरण करता हुआ उनके कृपा-रस-पीयूष का निरंतर पान करता हुआ, विषय-भोग शून्य हो जाता है। माँ भगवती का परम सान्निध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। इस परम पद को पाने के बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं रह जाती। माँ के चरणों का यह सान्निध्य प्राप्त करने के लिए भक्त को निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उनकी उपासना करने का नियम कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि माँ भगवती का स्मरण, ध्यान, पूजन इस संसार की असारता का बोध कराते हुए वास्तविक परम शांतिदायक अमृत पद की ओर ले जाने वाला है। इनकी आराधना से भक्त को अणिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, परकामा प्रवेश, वाकसिद्ध, अमरत्व भावना सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों और नव निधियों की प्राप्ति होती है। माँ की आराधना के लिए शाक्त ग्रन्थों में वर्णित मन्त्रों का जाप करने का नियम है। महागौरी पूजन नवरात्रि का आखिरी दिन होता है और इसके बाद दूसरे दिन दशहरा मनाया जाता है। दक्षिण भारत खासकर कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, और केरल में प्रचलित आयुध पूजा महानवरात्रि के दिन ही की जाती है। आयुध पूजा को शस्त्र पूजा और अस्त्र पूजा के नाम से भी जाना जाता है। पहले आयुध पूजा का उद्देश्य हथियारों की पूजा करना था, लेकिन वर्तमान रूप में इस दिन सभी प्रकार के वाद्ययंत्रों की पूजा की जाती है। ये एक ऐसा दिन है, जब दक्षिण भारत और भारत के दूसरे हिस्सों में विश्वकर्मा पूजा के समान कारीगर अपने उपकरणों की पूजा करते है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार नवरात्र के अंतर्गत नवम दुर्गा देवी सिद्धिदात्री के पूजन के साथ ही नवरात्रि का पारण और पूर्णाहुति किये जाने का विधान है। सिद्धिदात्री केतु ग्रह पर अपना आधिपत्य रखती है। सिद्धिदात्री का स्वरुप उस देह त्याग कर चुकी आत्मा का है, जिसने जीवन में सर्व सिद्धि प्राप्त कर स्वयं को परमेश्वर में विलीन कर लिया है। माँ दुर्गा के सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा विधि- विधान से करते हुए नवरात्रि में इस तिथि को विशेष हवन किया जाता है। नौ दुर्गा का अंतिम दिन होने के कारण इस दिन माता सिद्धिदात्री के बाद अन्य देवताओं की भी पूजा की जाती है। सर्वप्रथम माता की चौकी पर माता सिद्धिदात्री की तस्वीर या मूर्ति रख इनकी आरती और हवन किया जाता है। हवन करते समय सभी देवी दवताओं के नाम से हवि यानी आहुति देनी चाहिए। बाद में माता के नाम से आहुति देनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोक मंत्र रूप हैं। अत:सप्तशती के सभी श्लोक के साथ आहुति दी जा सकती है। देवी के बीज मंत्र ऊँ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नमः से कम से कम 108 बार हवि देने का विधान है । भगवान शंकर और ब्रह्मा की पूजा पश्चात अंत में इनके नाम से हवि देकर आरती करनी चाहिए। हवन में जो भी प्रसाद चढ़ाया है जाता है उसे समस्त लोगों में बांटना चाहिए। नवरात्रि के आखिर दिन यानि नवमी वाले दिन खीर, ग्वारफली और दूध में गूंथी पूरियां, इलायची और पान कंजक यानि कन्याओं को खिलाना चाहिए। उनके चरणों पर महावर और हाथों में मेहंदी लगा नवमी के दिन घर पर हवन करवाना चाहिए । ऐसी मान्यता है कि जितनी अधिक कन्याएं उसमें अपने नन्हें हाथों से समिधा डालेंगी, उनको उतना ही अधिक पुण्य फल प्राप्त होगा।
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