श्राद्ध-तर्पण न करने से लगता पितृ दोष
(प्रेेमशंकर अवस्थी-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
पुराणों में पितरों को तर्पण व पिण्डदान (श्राद्ध) कर्म के अभाव में श्रापित किये जाने का भी विधान वर्णित है-
अतर्पिता शरीशुद्धधिरं पिबन्ति’’ब्रह्यादिदेव एवं पितृगण तर्पण न करने वाले मानव के शरीर का रक्तपान करते है अर्थात दर्पण न करने की दशा में पाप से शरीर का रक्त-शोषण होता है। इसलिये मानवी धर्म है कि वंश परम्परा को अश्रुण रखने समाजोपयोगी जीवन जीने एवं मानवी लक्ष्य को विस्मृत न करने हेतु श्राद्धकर्म की क्रिया को अपनाना ही सच्चा धर्म है जो खुद व पितरों के लिये मोक्ष का द्वार खोलता है।
पितृ की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी, सहित सभी पूर्वज शमिल होते है व्यापक दृष्टि से मृत गुरू और आचार्य भी पितृ की श्रेणी में आते है। कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेंदियां थी। जहां पिंडदान किया जाता था इनमें अब 48 ही बची है। यहां की बेंदियों में विष्णुपाद मन्दिर फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त बैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुण्ड, नागकुण्ड, पांण्डुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिण्डदान के लिये प्रमुख है। यही कारण है कि देश में श्राद्ध के लिये 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिससे गया का स्थान सर्वोपरि है। गया का पुराणों में उल्लेख पितृश्राद्ध एवं पिण्डदान का कई कारणांे से महत्व दर्शाता है। बताया जाता है कि गयासुर नामक असुर ने कठिन तपस्या कर ब्रह्य जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाये और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाये। इस बरदान के चलते लोग भयमुक्त होर पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से फिर पाप मुक्त हो जाते थे।
इससे बचने के लिये देवताओं ने यज्ञ के लिये गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिये दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उस का शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पंाच कोस जगह आगे चलकर गया बना। यह भी उल्लेख है कि देहदान के बाद गयासुर के मन से लोगो को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर से देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोंगों को तारने वाला बना रहे। तब से ही यह स्थान मृतकों के लिये श्राद्धकर्म मुक्ति का स्थान बन गया।
कहते हंै कि गया वह आता है जिसे अपने पितरांे को मुक्त करना होता है लोग अपने पितरों या मृतकों की आत्मा को हमेशा के लिये छोडकर चले जाते हैै प्रथा के अनुसार सबसे पहले किसी भी मृतको को तीसरे वर्ष श्राद्ध में लिया जाता है और फिर बाद में उसे गया में हमेशा के लिये छोड दिया जाता है। कहते है कि गया में श्राद्धोेंपरान्त अंतिम श्राद्ध बदरीका क्षेत्र के ब्रह्य कपाली में किया जाता है। समूचे भारतवर्ष में ंहीं नही सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत ही प्रसिद्ध है वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर। विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भागवन विष्णु के चरण उपस्थित हैं जिसकी पूजा करने के लिये लोग देश के कोने कोन से आते है। गया में जो दूसरा प्रमुख स्थान है वह स्थान एक नदी है उसका नाम फल्गु नदी है ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था तब से यह माना जाने लगा है इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरांे के निमित्त पिंडदान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहंेगे और वह व्यक्ति अपने पितृ से उऋण हो जायेगा। पुराणांे में एक प्रसंग और भी है कि गया स्थान का नाम गया इसलिये रखा गया क्यांेकि भागवान विष्णु ने इसी धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानो में आता है और बडी ही श्रद्धा आदर से गया जी बोला जाता है। गया क्षेत्र में भगवान विष्णु पितृदेवता के रूप मंे विराजमान रहते है।
पुराणांे के अनुसार यह भी उल्लेखनीय है कि ब्रह्यज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरूक्षेत्र में निवास से चारों मुक्ति के साधन हैं। गया में श्राद्ध करने से बह्य हत्या, सुरापान स्वर्ण की चारी, गुरू पत्नी गमन उक्त संसर्ग जनित सभी महापातक भी नष्ट हो जाते है।
पुराणों में तर्पण (पितृयज्ञ) की क्रिया से प्राप्त फल का भी उल्लेख किया गया है।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रीस्त्रीन् दयाज्जलाजलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणा देव नश्यति।।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते है उनके जन्म से तर्पण के दिन तक पापों का नाश हो जाता है। हिन्दू धर्मदर्शन के अनुसार जिसका जिस प्रकार जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियां तक के पिता पक्ष के साथ तीन पीढ़ियां माता पक्ष के पूर्वजांे के लिये तर्पण किया जात है। इन्हीं को पितर कहते हैं दिव्यपितृ तर्पण, देवतर्पण, ऋषितर्पण, द्विव्य मनुष्यतर्पण के पश्चात् स्व पितृतर्पण किया जाता है जिस तिथि को माता पिता का देहांत हेाता है।
उसी तिथि को पितृ पक्ष में श्राद्ध किया जाता है शास्त्रांे के अनुसार पितृपक्ष अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्राद्धपूर्वक श्राद्ध करता है। उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते है एवं पितृ ऋण से मुक्त मिली जाती है।
पुराणों में पितरों को तर्पण व पिण्डदान (श्राद्ध) कर्म के अभाव में श्रापित किये जाने का भी विधान वर्णित है-
अतर्पिता शरीशुद्धधिरं पिबन्ति’’ ब्रह्यादिदेव एवं पितृगण तर्पण न करने वाले मानव के शरीर का रक्तपान करते है अर्थात दर्पण न करने की दशा में पाप से शरीर का रक्त-शोषण होता है। इसलिये मानवी धर्म है कि वंश परम्परा को अश्रुण रखने समाजोपयोगी जीवन जीने एवं मानवी लक्ष्य को विस्मृत न करने हेतु श्राद्धकर्म की क्रिया को अपनाना ही सच्चा धर्म है जो खुद व पितरों के लिये मोक्ष का द्वार खोलता है।
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