मन को सहस्रार चक्र में स्थिति के लिए कालरात्रि पूजन -अशोक “प्रवृद्ध”
पौराणिक मान्यतानुसार इस जगत में धर्म की रक्षा, दैत्यों के विनाश और धरा के कल्याण के लिए दैवीय परम शक्ति माता आदिशक्ति दुर्गा भवानी की उत्पत्ति ईश्वरीय इच्छा से हुई, जिसमें अनेक देवी देवताओं की शक्ति समाहित है। माँ भगवती दुर्गा की सप्तम स्वरूप देवी कालरात्रि की उत्पत्ति नवरात्रि के सातवें दिन होती है, जो देवता सहित इस संसार के मानव का कल्याण करती है। कालरात्रि अर्थात जो सबको मारने वाले काल की भी रात्रि है, अर्थात काल को भी समाप्त कर देती है। उनके सम्मुख साक्षात काल भी नहीं ठहर सकता है। काल की विनाशिका होने से उनका कालरात्रि नाम पड़ा। काल का अर्थ समय से है और समय को भी काल के रूप में जाना जाता है। जिसका अर्थ मृत्यु से है। काल जो सभी को एक दिन मार देता है। उससे भी महाभयानक शक्ति का स्रोत माँ कालरात्रि हैं, जिनसे साक्षात काल भी नहीं बच सकता है। वही माँ कालरात्रि अर्थात काली इस संसार की रक्षा करती है। और अपने श्रद्धालु भक्तों को भूत, प्रेत, राक्षस, बाधा, डर, दुःख, दरिद्रता, रोग, पीड़ाओं से बचाकर भक्त को अभय प्रदान करती हैं। जिससे भक्त को सुख समृद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा के इस सातवें रूप को कालरात्रि के नाम से जाना जाता है, जो इस संसार में आदि काल से सुप्रसिद्ध है।
पौराणिक मान्यतानुसार माँ कालरात्रि की सम्पूर्ण शरीर एक अंधकार की भांति होने के कारण शरीर काला रंग का होता है। सिर के बाल सदैव ही खुले रहते हैं तथा गले में विद्युत की भांति चमकने वाली माला होती है। काल का नाश करने वाली देवी होने के कारण ही इन्हें कालरात्रि के नाम से संज्ञायित किया गया है। इनके तीन नेत्र हैं और तीनों ही नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल हैं, जिनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। सर्वत्र विराजमान, बारम्बार नमनीय और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ अर्थात गदहा है। अपनी ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खडग अर्थात कटार है। देखने में अत्यंत भयानक स्वरूप वाली माँ कालरात्रि सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम शुभंकारी भी कहा गया है। इसीलिए माँ कालरात्रि से भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार माँ दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि की पूजा -अर्चना दुर्गा पूजा के सातवें दिन किये जाने की प्राचीन परिपाटी है। इस दिन भक्तों का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहने के करण उनके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। देवी कालरात्रि को व्यापक रूप से देवी काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, मृत्यु, रुद्रानी, चामुंडा, चंडी और दुर्गा के कई विनाशकारी रूपों में से एक माना जाता है। रौद्री और धुमोरना देवी कालरात्रि के अन्य कम प्रसिद्ध नामों में हैं। उल्लेखनीय है कि नाम, काली और कालरात्रि का उपयोग एक दूसरे के परिपूरक के रूप में होता है, फिर भी इन दो देवियों को कतिपय विद्वानों के द्वारा पृथक- पृथक सता के रूप में माना जाता है। विद्वानों के अनुसार भारतीय पुरातन ग्रन्थों में काली के उल्लेख के पूर्व से ही कालरात्रि का उल्लेख होने का प्रमाण उपलब्ध है। पुराणों में प्रथम बार काली नाम से संज्ञायित देवी का नामोल्लेख महाभारत में कालरात्रि देवी के रूप में हुआ है। विद्वानों के अनुसार दोनों एक ही देवी का वर्णन है। भक्तों का कल्याण करने वाली माता कालरात्रि के विषय में पुराणों में अनेक कथाएं प्राप्य हैं। जिसमें सबसे प्रमाणिक दुर्गा सप्तशती को माना जाता है। इसके अतिरिक्त देवी भागवत तथा अन्य पुराणों में भी माँ की कथा व महिमा के अंश प्राप्त होते हैं। कई पुराणों में कालरात्रि को काली का ही रूप माना जाता है। शिल्प प्रकाश में संदर्भित एक प्राचीन तांत्रिक पाठ, सौधिकागम में देवी कालरात्रि का वर्णन रात्रि के नियंत्रा रूप में किया गया है। सहस्रार चक्र में स्थित भक्तों का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य, सिद्धियों और निधियों विशेष रूप से ज्ञान, शक्ति और धन का वह भागी हो जाता है, उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है और उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है। नवरात्रि के सप्तम दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र अर्थात मध्य ललाट में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। संसार में कालों का नाश करने वाली देवी कालरात्रि भक्तों की सभी दु:ख, संताप हर लेती हैं, दुश्मनों का नाश करती हैं तथा मनोवांछित फल प्रदान कर उपासक को संतुष्ट करती हैं। दुर्गा सप्तशती के प्रधानिक रहस्य के अनुसार जब देवी ने इस सृष्टि का निर्माण शुरू किया और ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का प्रकटीकरण हुआ उससे पहले देवी ने अपने स्वरूप से तीन महादेवियों को उत्पन्न किया। सर्वेश्वरी महालक्ष्मी ने ब्रह्माण्ड को अंधकारमय और तामसी गुणों से भरा हुआ देखकर सबसे पहले तमसी रूप में जिस देवी को उत्पन्न किया वह देवी ही कालरात्रि हैं। देवी कालरात्रि ही अपने गुण और कर्मों द्वारा महामाया, महामारी, महाकाली, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, एवं दुरत्यया कहलाती हैं। मान्यता है कि देवी के इस रूप में सभी राक्षस,भूत, प्रेत, पिशाच और नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता है, जो उनके आगमन से पलायन करते हैं। दुष्टों का विनाश करने वाली माता कालरात्रि के स्मरण मात्र से ही दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि भयभीत होकर भाग जाते हैं। ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली कालरात्रि के भक्तों- उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है। यही कारण है कि माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके तन मन, वचन की शुद्धता, पवित्रता का ध्यान रख यम, नियम ,संयम का पूर्णतः पालन करते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करने का विधान है। देवी शुभंकारी कालरात्रि की उपासना से होने वाले शुभों का वर्णन सहस्त्रों मुख वाले शेषनाग से भी सम्भव नहीं है। इसीलिए भक्तों को निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा “ॐ ऐं ह्रीं क्रीं कालरात्रै नमः ।“ मन्त्र का निरंतर उच्चारण करते हुए करना चाहिए।
मान्यता है कि कालरात्रि की पूजा-अर्चना करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है व शत्रुओं का नाश होता है, तेज बढ़ता है। माँ जगदम्बे की भक्ति के लिए नवरात्रि में सातवें दिन निम्न मन्त्र का जाप उतम माना गया है -
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयन्करि।।
देवी सप्तशती के अनुसार मधु कैटभ नामक महापराक्रमी असुर से जीवन की रक्षा हेतु भगवान विष्णु को निंद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा ने निम्न मंत्र से मां की स्तुति की थी-
कालरात्रिमर्हारात्रिर्मोहरात्रिश्र्च दारूणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्र्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।। पुराणों व शाक्त निबन्ध ग्रन्थों के अनुसार यह देवी काल रात्रि ही महामाया हैं और भगवान विष्णु की योगनिद्रा हैं। इन्होंने ही सृष्टि को एक दूसरे से जोड़ रखा है। देवी काल रात्रि का वर्ण का जल के समान काले रंग का है, जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है। मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं। देवी का यह रूप ऋद्धि -सिद्धि प्रदान करने वाला माना गया है। नवरात्रि का सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है । सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं। इस दिन मां की आंखें खुलती हैं। षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किये गए विल्व को आज तोड़कर लाया जाता है, और उससे मां की आँखें बनती हैं। नवरात्रि में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है। इस दिन से भक्त जनों के लिए भगवती दुर्गा का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं। सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की भांति ही होती है, परंतु रात्रि काल में विशेष विधि -विधान के साथ देवी की पूजा किये जाने का विधान है। इस दिन अनेक प्रकार के मिष्टान एवं कहीं -कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित की जाती है। सप्तमी की रात्रि सिद्धियों की रात भी कही जाती है। कुण्डलिनी जागरण हेतु साधनारत्त भक्त इस दिन सहस्त्रसार चक्र का भेदन करते हैं। इनकी अराधना के लिए शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार पहले कलश की पूजा कर नवग्रह, दश दिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी - देवता की पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए। देवी कालरात्रि की पूजा से पहले उनका ध्यान - “ देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्तया, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां, भक्त नता: स्म विदाधातु शुभानि सा नः ।“ मन्त्र से करना चाहिए ।
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