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स्थित प्रज्ञ पुरुष के गुण बताए कृष्ण ने

स्थित प्रज्ञ पुरुष के गुण बताए कृष्ण ने

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ सम्पूर्ण प्राणियों की रात्रि के समान क्या है और उसमें स्थित प्रज्ञ योगी का जागना क्या है?

उत्तर-अज्ञानी और ज्ञानियों के अनुभव में रात और दिन के सदृश अत्यन्त विलक्षणता है, यह भाव दिखलाने के लिये रात्रि के रूपक से साधारण अज्ञानी मनुष्यों की और ज्ञानी की स्थिति का वर्णन किया गया है। इसलिये यहाँ रात्रि का अर्थ सूर्यास्त के बाद होने वाली रात्रि नहीं है, किन्तु जैसे प्रकाश से पूर्ण दिन को उल्लू अपने नेत्र दोष से अन्धकारमय देखता है, वैसे ही अनादि सिद्धि अज्ञान के परदे से अन्तःकरण रूप नेत्रों की विवेक-विज्ञान रूप प्रकाशन शक्ति के आवृत रहने के कारण अविवेकी मनुष्य स्वयं प्रकाश नित्यबोध परमानन्द परमात्मा को नहीं देख पाते। उस परमात्मा की प्राप्ति रूप सूर्य के प्रकाशित होने से जो परम शान्ति और नित्य आनन्द का प्रत्यक्ष अनुभव होता है वह वास्तव में दिन की भाँति प्रकाशमय होते हुए भी परमात्मा के गुण, प्रभाव, रहस्य और तत्त्व को न जानने वाले अज्ञानियों के लिये रात्रि है यानी रात्रि के समान है, क्योंकि वे उस ओर से सर्वथा सोये हुए हैं, उनको उस परमात्मा का कुछ पता ही नहीं है, यह परमात्मा की प्राप्ति ही यहाँ सम्पूर्ण प्राणियों की रात्रि है, यही रात्रि परमात्मा को प्राप्त संयमी पुरुष के लिये दिन के समान है। स्थित प्रज्ञ पुरुष का जो उस सच्चिदानन्द धन परमात्मा के स्वरूप को प्रत्यक्ष करके निरन्तर उसी में स्थित रहना है यही उसका उस सम्पूर्ण प्राणियों की रात्रि में जागना है।

प्रश्न-सम्पूर्ण प्राणियों का जागना क्या है? और जिसमें सब प्राणी जागते हैं, वह परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के रात्रि के समान कैसे है?

उत्तर-यद्यपि इस लोक और परलोक में जितने भी भोग हैं, सब नाशवान्, क्षणिक, अनित्य और दुःखरूप हैं, तथापि अनादि सिद्ध अन्धकारमय अज्ञान के कारण विषयासक्त मनुष्य उनको नित्य और सुखरूप मानते हैं; उनकी दृष्टि में विषय-भोग से बढ़कर और कोई सुख नहीं है; इस प्रकार भोगों में आसक्त होकर उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा में लगे रहना और उनकी प्राप्ति में आनन्द का अनुभव करना, यही उन सम्पूर्ण प्राणियों का उनमें जागना है। यह इन्द्रिय और विषयों के संयोग से तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा से उत्पन्न सुख रात्रि की भाँति ही है; तो भी अज्ञानी प्राणी इसी को दिन समझकर इसमें वैसे ही जाग रहे हैं जैसे कोई नींद में सोया हुआ मनुष्य स्वप्न के दृश्यों को देखता हुआ स्वप्न में समझता है कि मैं जाग रहा हूँ। किन्तु परमात्मतत्व को जानने वाले ज्ञानी के अनुभव में जैसे स्वप्न से जगे हुए मनुष्य का स्वप्न के जगत् से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; वैसे ही एक सच्चिदानद्धन परमात्मा से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं रहती, वह ज्ञानी इस दृश्य जगत् स्थान में इसके अधिष्ठापन रूप परमात्मात्मत्त्व को ही देखता है, अतएव उसके लिये समस्त सांसारिक भोग और विषयानन्द रात्रि के समान है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमापोन्ति न कामकामी।। 70।।

प्रश्न-स्थित प्रज्ञ ज्ञानी के साथ समुद्र की उपमा देकर यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है?

उत्तर-किसी भी जड़ वस्तु की उपमा देकर स्थित प्रज्ञ पुरुष की वास्तविक स्थिति का पूर्णतया वर्णन करना सम्भव नहीं है; तथापि उपमा द्वारा उस स्थिति के किसी अंश का लक्ष्य कराया जा सकता है। अतः समुद्र की उपमा से यह भाव समझना चाहिये कि जिस प्रकार समुद्र ‘आपूर्यमाणम्’ यानी अथाह जल से परिपूर्ण है; जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता नहीं है, वैसे ही स्थित प्रज्ञ पुरुष को भी किसी सांसारिक सुख-भोग की तनिक मात्र भी आवश्यकता नहीं है, वह सर्वथा आत्मकाम है। जिस प्रकार समुद्र की स्थिति अचल है, भारी-से-भारी आँधी-तूफान आने पर या नाना प्रकार से नदियों के जल प्रवाह उसमें प्रविष्ट होने पर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं होता, मर्यादा का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में स्थित योगी की स्थिति भी सर्वथा अचल होती है, बड़े-से-बड़े सांसारिक सुख-दुःखों का संयोग-वियोग होने पर भी उसकी स्थिति में जरा भी अन्तर नहीं पड़ता, वह सच्चिदानंद परमात्मा में नित्य-निरन्तर अटल और एकरस स्थित रहता है।

प्रश्न-‘सर्वे’ विशेषण के सहित ‘कामाः’ पद यहाँ किनका वाचक है और उनका समुद्र में जलों की भाँति स्थित प्रज्ञ में समा जाना क्या है?

उत्तर-यहाँ ‘सर्वे’ विशेषण के सहित ‘कामाः’ पद ‘काम्यन्त इति कामाः’ अर्थात् जिनके लिये कामना की जाय उनका नाम काम होता है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों का वाचक है, इच्छाओं का वाचक नहीं। क्योंकि स्थित प्रज्ञ पुरुष में कामनाओं का तो सर्वथा अभाव ही हो जाता है, फिर उनका उसमें प्रवेश कैसे बन सकता है? अतएव जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता न रहने पर भी अनेक नद-नदियों के जल प्रवाह उसमें प्रवेश करते रहते हैं, परन्तु नदी और सरोवरों की भाँति न तो समुद्र में बाढ़ आती है और न वह अपनी स्थिति से विचलित होकर मर्यादा का ही त्याग करता है, सारे-के-सारे जल प्रवाह उसमें बिना किसी प्रकार की विकृति उत्पन्न किये ही विलीन हो जाते हैं, वैसे ही स्थित प्रज्ञ पुरुष को किसी भी सांसारिक भोग की किश्चिंत मात्र भी आवश्यकता न रहने पर भी उसे प्रारब्ध के अनुसार नाना प्रकार के भोग प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात उसके मन बुद्धि और इन्द्रियों के साथ प्रारब्ध के अनुसार नाना प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल विषयों का संयोग होता रहता है। परन्तु वे भोग उनमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, भय और उद्वेग या अन्य किसी प्रकार का कोई भी विकार उत्पन्न करके उसे उसकी अटल स्थिति से या शास्त्र मर्यादा से विचलित नहीं कर सकते, उनके संयोग से उसकी स्थिति में कभी किंचित मात्र भी अन्तर नहीं पड़ता, वे बिना किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किये ही उसके परमानन्द-मय स्वरूप में तद्रूप होकर विलीन हो जाते हैं-यही उनका समुद्र में जलों की भाँति स्थित प्रज्ञ में समा जाना है।

प्रश्न-वही परम शान्ति को प्राप्त होता है, भेागों को चाहने वाला नहीं,-इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि जो उपुर्यक्त प्रकार से आप्तकाम है, जिसको किसी भी भोग की जरा भी आवश्यकता नहीं है, जिसमें समस्त भोग प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप आ-आकर विलीन हो जाते हैं और जो स्वयं किसी भोग की कामना नहीं करता, वही परम शान्ति को प्राप्त होता; क्योंकि उसका चित्त निरन्तर नाना प्रकार की भोग-कामनाओं से विक्षिप्त रहता है; और जहाँ विक्षेप है, वहाँ शान्ति कैसे रह सकती है? वहाँ तो पद-पद पर चिन्ता, और शोक ही निवास करते हैं।
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