मिल गया उत्तर
----:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
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पहली बार
देख रहा था
अनंत जलराशि
उठती लहरें
और गंभीर गर्जन
अचंभित हो रहा था
मेरा मन
हे समुद्र देव
करवद्ध है निवेदन
जरा ठहर ठहर
जरा स्पर्श कर लेने दो मुझे
ये अपने फेनिल लहर
मझधार में पडी नौका
देखकर मेरा मन रह गया भौचक्का
वाह रे भाई मल्लाह
निडर निर्विघ्न उतारू हो तुम
अतल गहराई की पाने थाह
लेकर एक पतवार
हो लहरों पर सवार
जो थे मेरे साथ वाले
सबने अपने-अपने सामान को
किया मेरे हीं हवाले
और उतर पडे सबके सब
सागर के उठते हुए लहरों के बीच
अपनी अपनी मुठ्ठियाँ भींच
आता जाता लहर
सब आनंदित होते रहे भींगकर
और मैं खडा देखता रहा तट पर
भर नजर
हलांकि लोगों ने मुझे भी कहा
अरे!जरा इधर तो आओ....अहाsहाs
पर मेरा मन
देखता रहा एकटक
अथाह जलराशि का अविराम नर्तन
उपर मानव मात्र का मेला
और नीचे लहरों का रेला
मुझे लगा है बहुत रहस्य गुढ
और मैं सोचता रहा हो विमुढ
जब कुछ नहीं सूझा
मैनें आहिस्ते से यूंहीं पुछा
क्या तुम देगो उत्तर
अरे ओ सागर
आखिर किसलिए तुम
गीर रहे हो उपर उठकर
मेरा प्रश्न सुन
शायद मिला समुद्र को सुकून
फिर हो गुरू गंभीर
बोला जैसे कोई मतिधीर
है ये प्रकृति का नियम
रखो अपनी मर्यदा और संयम
तेरी ऐषणा है मेरी उद्घोषणा
तेरी इच्छा.... है मेरी लहरों की परीक्षा
उफनती है नदी
हो जाती है कभी-कभी कुपिता
पर मैं नही कर सकता ऐसा
नदी नाला जैसा
कारण की मैं हूँ उन सबका पिता
मैं उन सबकी समेटकर गलतियां
देता हूँ अपनी गलबाहिंयां
खुद में समेटकर
था मिल गया मुझे उत्तर
मैं सागर को किया नमन
फिर इश्वर का किया भजन
कह तुम धन्य हो सागर
मुझे मिल गया उत्तर
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