कछुए की तरह इन्द्रियों को करें वश में
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
यदा संहरते चायं कूर्मोऽगांनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। 58।।
प्रश्न-कछुए की भाँति इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेना क्या है?
उत्तर-जिस प्रकार कछुआ अपने समस्त अंगों को सब ओर से संकुचित करके स्थिर हो जाता है, उसी प्रकार समाधिकाल में जो वश में की हुई समस्त इन्द्रियों की वृ़ि़त्तयों को इन्द्रियों के समस्त भोगों से हटा लेना है, किसी भी इन्द्रिय को किसी भी भोग की ओर आकर्षित न होने देना तथा उन इन्द्रियों में मन और बुद्धि को विचलित करने की शक्ति न रहने देना है-यहाँ कछुए की भाँति इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों से हटा लेना है। ऊपर से इन्द्रियों के स्थानों को बंद करके स्थूल विषयों से इन्द्रियों को हटा लेने पर भी इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं, इसी कारण साधारण मनुष्य स्वप्न में और मनोराज्य में इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्म विषयों का उपयोग करता रहता है; यहाँ ‘सर्वशः’ पद का प्रयोग करके इस प्रकार के विषयोंपभोग से भी इन्द्रियों को सर्वथा हटा लेने की बात कही गयी है।
प्रश्न-उसकी बुद्धि स्थिर है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि जिसकी इन्द्रियाँ सब प्रकार से ऐसी वश में की हुई हैं कि उनके मन और बुद्धि को विषयों की ओर आकर्षित करने की जरा भी शक्ति नहीं रह गयी है और इस प्रकार से वश में की हुई अपनी इन्द्रियों को जो सर्वथा विषयों से हटा लेता है, उसी की बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती, क्योंकि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि को बलात्कार से विषय सेवन में लगा देती हैं।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते।। 59।।
प्रश्न-यहाँ ‘निराहरस्य’ विशेषण के सहित ‘देहिनः‘ पद किस का वाचक है?
उत्तर-संसार में जो भोजन का परित्याग कर देता है, उसे ‘निराहार’ कहते हैं; परन्तु यहाँ ‘निराहारस्य’ पद का प्रयोग इस अर्थ में नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘विषयाः’ पद में बहुवचन का प्रयोग करके समस्त विषयों के निवृत्त हो जाने की बात कही गयी है। भोजन के त्याग से तो केवल जिव्हा-इन्द्रिय के विषय की ही निवृत्ति होती है शब्द, स्पर्श, रूप और गन्ध की निवृत्ति नहीं होती। अतः यह समझना चाहिये कि जिस इन्द्रिय का जो विषय है, वही उसका आहार है-इस दृष्टि से जो सभी इन्द्रियों के द्वारा समस्त इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण करना छोड़ देता है, ऐसे देहाभिमानी मनुष्य का वाचक यहाँ ‘निराहारस्य’ विशेषण के सहित ‘देहिनः‘ पद है।
प्रश्न-ऐसे मनुष्य के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि विषयों का परित्याग कर देने वाला अज्ञानी भी ऊपर से तो कछुए की भाँति अपनी इन्द्रियों को विषयों से हटा सकता है; किन्तु उसकी उन विषयों में आसक्ति बनी रहती है, आसक्ति का नाश नहीं होता। इस कारण उसकी इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं और उसके अन्तःकरण को स्थिर नहीं होने देती। निम्नलिखित उदाहरणों से यह बात ठीक समझ में आ सकती हैं।
रोग या मृत्यु के भय से अथवा अन्य किसी हेतु से विषयासक्त मनुष्य किसी एक विषय का या अधिक विषयों का त्याग कर देता है। वह जैसे जब जिस विषय का परित्याग करता है तब उस विषय की निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही समस्त विषयों का त्याग करने से समस्त विषयों की निवृत्ति भी हो सकती है; परन्तु वह निवृत्ति हठ, भय या अन्य किसी कारण से आसक्ति रहते ही होती है, ऐसी निवृत्ति से वस्तुतः आसक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती।
दम्भी मनुष्य लोगों को दिखलाने के लिये किसी समय जब बाहर से दसांे इन्द्रियों के शब्दादि विषयों का परित्याग कर देता है तब ऊपर से तो विषयों की निवृत्ति हो जाती है, परन्तु आसक्ति रहने के कारण मन के द्वारा वह इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है। अतः उसकी आसक्ति पूर्ववत् ही बनी रहती है।
भौतिक सुखों की कामना वाला मनुष्य अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति के लिये या अन्य किसी प्रकार के विषय सुख की प्राप्ति के लिये ध्यान काल में या समाधि-अवस्था में दसों इन्द्रियों के विषयों का ऊपर से भी त्याग कर देता है और मन से भी उनका चिन्तन नहीं करता तो भ्ीा उन भोगों में उसकी आसक्ति बनी रहती है, आसक्ति का नाश नहीं होता।
इस प्रकार स्वरूप से विषयों का परित्याग कर देने पर विषय तो निवृत्त हो सकते है, पर उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती।
प्रश्न-यहाँ ‘रस’ का अर्थ आस्वादन अथवा मन के द्वारा उपभोग मानकर ‘उसका रस निवृत्त नहीं होता’ इस वाक्य का अर्थ यदि यह मान लिया जाय कि ऐसा पुरुष स्वरूप से विषयों का त्यागी होकर भी मन से उनके उपभेाग का आनन्द लेता रहता है, तो क्या आपत्ति है? उत्तर-उपर्युक्त वाक्य का ऐसा अर्थ लिया तो जा सकता है; किन्तु इस प्रकार मन के द्वारा विषयों का आस्वादन विषयों में आसक्ति होने पर ही होता है, अतः ‘रस’ का अर्थ ‘आसक्ति’ लेने से यह बात उसके अन्तर्गत ही आ जाती है। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार मन के द्वारा विषयों का उपभोग परमात्मा के साक्षात्कार से पूर्व हठ, विवेक एवं विचार के द्वारा भी रोका जा सकता है; परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर तो उसके मूल आसक्ति का भी नाश हो जाता है और इसी में परमात्मा के साक्षात्कार की चरितार्थता है, विषयों का मन से उपभोग हटाने में नहीं। अतः ‘रस’ का अर्थ जो ऊपर किया गया है, वही ठीक है।
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