कामना का स्थूल रूप है तृष्णा

कामना का स्थूल रूप है तृष्णा

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-समाधिस्थ अवस्था परमात्मा को प्राप्त सिद्ध पुरुष की अक्रिय अवस्था माननी चाहिये अथवा सक्रिय-अवस्था?

उत्तर-दोनों ही अवस्थाएँ मानी जानी चाहिये; अर्जुन ने भी यहाँ दोनों की ही बातें पूछी हैं-‘कि प्रभाषेत’ और ‘किं व्रजेत’ से सक्रिय की और ‘किमासीत’ से अ़िक्रय की।

प्रश्न-‘भाषा’ शब्द का अर्थ ‘वाणी’ न करके ‘लक्षण’ कैसे किया?

उत्तर-स्थिर बुद्धि पुरुष की वाणी के विषय में ‘किं प्रभाषेत’ अर्थात् वह कैसे बोलता है-इस प्रकार अच्छा प्रश्न किया गया है, इस कारण यहाँ ‘भाषा’ शब्द का अर्थ ‘वाणी’ न करके ‘भाष्यते कथ्यते अनया इति भाषा जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप बतलाया जाय, उस लक्षण का नाम ‘भाषा’ है- इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘भाषा’ का अर्थ ‘लक्षण’ किया गया है; प्रचलित भाषा में भी ‘परिभाषा’ शब्द लक्षण का ही पर्याय है। उसी अर्थ में यहाँ ‘भाषा’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है? इन प्रश्नों में क्या साधारण बोलने, बैठने और चलने की बात है या और कुछ विशेषता है?

उत्तर-परमात्मा को प्राप्त सिद्ध पुरुष की सभी बातों में विशेषता होती है; अतएव उसका साधारण बोलना, बैठना और चलना भी विलक्षण ही होता है। किन्तु यहाँ साधारण बोलने, बैठने और चलने की बात नहीं है; यहाँ बोलने से तात्पर्य है-उसके वचन मन के लिए भावों से भावित होते है? बैठने से तात्पर्य है- व्यवहार रहित काल में उसकी कैसे अवस्था होती है? और चलने से तात्पर्य है-उसके आचरण कैसे होते हैं?

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्सना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते।। 55।।

प्रश्न-‘सर्वान् विशेषण के सहित ‘कामान्’ पद किनका वाचक है? और उनका भलीभाँति त्याग कर देना क्या है?

उत्तर-इस लोक या परलोक के किसी भी पदार्थ के संयोग या वियोग की जो किसी भी निमित्त से किसी भी प्रकार की मन्द या तीव्र कामनाएँ मनुष्य के अन्तःकरण में हुआ करती हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘सर्वान्’ विशेषण के सहित ‘कामान् ‘पद है। इनके वासना, स्पृहा, इच्छा और तृष्णा आदि अनेक भेद हैं। इन सबसे सदा के लिये सर्वथा रहित हो जाना ही उनका सर्वथा त्याग कर देना है।

प्रश्न-वासना, स्पृहा, इच्छा और तृष्णा में क्या अन्तर है?

उत्तर-शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मान, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल पदार्थों के बने रहने की और प्रतिकूल पदार्थों के नष्ट हो जाने की जो राग-द्वेष जनित सूक्ष्म कामना है, जिसका स्वरूप विकसित नहीं होता उसे ‘वासना’ कहते हैं। किसी अनुकूल वस्तु के अभाव का बोध होने पर जो चित्त में ऐसा भाव होता है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है, उसके बिना काम नहीं चलेगा, इस अपेक्षा रूप कामना का नाम ‘स्पृहा’ है। यह कामना का वासना की अपेक्षा विकसित रूप है। जिस अनुकूल वस्तु का अभाव होता है उसके मिलने की और प्रतिकूल के विनाश की या न मिलने की प्रकट कामना का नाम ‘इच्छा’ है; यह कामना का पूर्ण विकसित रूप है और स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ यथेष्ट प्राप्त रहते हुए भी जो उनके अधिकाधिक बढ़ने की इच्छा है, उसको ‘तृष्णा कहते हैं। यह कामना का बहुत स्थूल रूप है।

प्रश्न-यहाँ ‘कामान्’ के साथ ‘मनोतान्’ विशेषण देने का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि कामना का वास स्थान मन है। अतएव बुद्धि के साथ-साथ जब मन परमात्मा में अटल स्थिर हो जाता है, तब इन सबका सर्वथा अभाव हो जाता है। इसलिये यह समझना चाहिये कि जब तक साधक के मन में रहने वाली कामनाओं का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता, तब तक उसकी बुद्धि स्थिर नहीं है।

प्रश्न-आत्मा में ही सन्तुष्ट रहना क्या है?

उत्तर-अन्तःकरण में स्थित समस्त कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाने के बाद समस्त दृश्य-जगत् से सर्वथा अतीत नित्य, शुद्ध, बुद्ध परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रत्यक्ष करके जो उसी में नित्य तृप्त हो जाना है-यही आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहना है। तीसरे अध्याय के सतरहवें श्लोक में भी महापुरुष के लक्षणों में आत्मा में ही तृप्ति और आत्मायें ही सन्तुष्ट रहने की बात कही गयी है।

प्रश्न-उस समय वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि कर्मयोग का साधन करते-करते जब योगी की उपर्युक्त स्थिति हो जाय, तब समझना चाहिये कि उसकी बुद्धि परमात्मा में अटल स्थित हो गयी है अर्थात् वह येागी परमात्मा को प्राप्त हो चुका है।

दुःखेरूवनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभय क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। 56।।

प्रश्न-‘दुःखेषु अनुद्विग्मनाः‘ का क्या भाव है?

उत्तर-इससे स्थिर बुद्धि मनुष्य के अन्तःकरण में उद्वेग का सर्वथा अभाव दिखलाया है। अभिप्राय यह है कि जिसकी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल स्थित हो जाती है, उस परमात्मा को प्राप्त हुए महापुरुष को साधारण दुःखों की तो बात ही क्या है, भारी-से-भारी दुःख भी उस स्थिति से विचलित नहीं कर सकते। शस्त्रों द्वारा शरीर का काटा जाना, अत्यन्त दुःसह सरदी-गरमी, वर्षा और बिजली आदि से होने वाली शारीरिक पीड़ा, अति उत्कट रोग-जनित व्यथा, प्रिय से भी प्रिय वस्तु का आकस्मिक वियोग, बिना ही कारण संसार में महान अपमान एवं तिरस्कार और निन्दादि का हो जाना, इसके सिवा और भी जितने महान् दुःखों के कारण हैं, वे सब एक साथ उपस्थित होकर भी उसके मन में किंचिंत मात्र भी उद्वेग नहीं उत्पन्न कर सकते। इस कारण उसके वचनों में भी सर्वथा उद्वेग का अभाव होता है; यदि लोकसंग्रह के लिये उसके द्वारा शरीर या वाणी से कहीं उद्वेग का भाव दिखलाया जाय तो वह वास्तव में उद्वेग नहीं है।

प्रश्न-‘सुखेषु विगमस्पृहः’ का क्या भाव है? उत्तर-इससे स्थिर बुद्धि मनुष्य के अन्तःकरण में स्पृहा रूपी दोष का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि वह दुःख और सुख दोनों में सदा ही सम रहता है। जिस प्रकार बड़े से बड़ा दुःख उसे अपनी स्थिति से विचलित नहीं कर सकता, उसी प्रकार बड़े से बड़ा सुख भी उसके अन्तःकरण में किंचित मात्र भी स्पृहा का भाव नहीं उत्पन्न कर सकता; इस कारण उसकी वाणी में स्पृहा के दोष का सर्वथा अभाव होता है। यदि लोकसंग्रह के लिये उसके द्वारा शरीर या वाणी से कहीं स्पृहा का भाव दिखलाया जाय तो वह वास्तव में स्पृहा नहीं है।
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