राजस्थान की शक्ति पीठ सकराय
(रमेश सर्राफ धमोरा-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
राजस्थान शक्ति व भक्ति की साधना स्थली रहा हैं। यहां देवियों के नामों का आधार प्रायः अवतार हैं लेकिन ख्यातिप्राप्त सिद्ध शक्ति पीठ व स्थानीयता भी नामकरण का आधार रहा हैं। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के मध्य से गुजरने वाले अरावली पर्वत की मालकेतु पर्वत श्रंखला के मध्य भाग में झुंझुनू जिले के उदयपुरवाटी से 16 किलोमीटर दूर भगवती सकराय का भव्य मन्दिर बना हुआ हैं। मंदिर के चारो तरफ घाटी में विभिन्न प्रकार के जंगली पेड़ों व लताओं के कारण हरियाली छायी रहती हैं। इन पेड़ों में पलास, सैनणा, फासला, बेर, कांकूण जैसे फलदार पेड़ों के साथ कई प्रकार की आरोग्य दायिनी जड़ी-बूंटिया भी मिलती है। यहां के पहाड़ों मे कई जगह जमीन के अन्दर आलू के आकार का सफेद रंग का मूल मिलता हैं जिसमें दूध जैसा रस निकलता है जो स्वाद में मीठा होता है। स्थानीय बोली मे इसे झूडूला कहा जाता हैं। इसे माता सकराय का प्रिय फल माना जाता है।
जंगली जानवर बघेरा, बंदर, साम्भर, सेई, भेडिया, सियार, गीदड़ आदि भी इस प्राकृतिक स्थल के आस -पास विचरण करते हैं। वर्षा ऋतु में इस क्षेत्र की छठा अलौकिक हो जाती हैं। चारो और पेड़ों के मध्य पूर्व से उत्तर की और मन्दिर के पास से बहने वाली पुराणो में वर्णित शक्रधार के कुण्डों के समशीतोष्ण जल में स्नान करने से मन पवित्र हो जाता हैं। ऐसे शांत एवं मनोहारी प्राकृतिक वातावरण के बीच भगवती ब्राह्मणी (सकराय) व रुद्राणी (काली) मन्दिर के वृताकार गर्भ गृह में चांदी के बड़े नक्काशीदार सिंहासन पर विराजमान हैं। सिंहासन के दांयी ओर पीतल के ऊंचे दीपदान पर रखा अखण्ड दीपक सैंकड़ों वर्षो से निरन्तर जल रहा हैं।
देवी की दोनो प्रतिमाओं के आठ भुजा हैं जिनमें अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखा है तथा सिंह पर सवार होकर महिषासुर का वध कर रहीं हैं। दोनो ही प्रतिमायें समान आकार-प्रकार की और बड़ी सुन्दर हैं। देवी के पूर्वाभिमुख मन्दिर के गर्भ गृह तथा सामने के सभा मण्डप का निर्माण तराशे हुए विशाल पत्थर को जोडकर किया गया हैं। इसमें मुख्यतः मैड़ व संगमरमर के पत्थरों का प्रयोग हुआ हैं।
पद्मपुराण में वर्णन है कि देवराज इन्द्र ने दैत्यों द्वारा छीने गये अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने हेतु इस स्थल पर आकर माँ सकराय की वर्षो तक पूजा-अर्चना व कठोर तपस्या की थी। इन्द्र की तपस्या से प्रसन्न होकर मा सकराय ने इन्द्र को अपना खोया राजवैभव पुनः पाने का वरदान दिया था। इन्द्र ने इसी स्थान पर विधिपूर्वक पूजा अर्चना कर देवी की प्रतिमा को स्थापित किया था। इसी कारण सकराय को शक्र -मातृका भी कहते हैं। उपरोक्त पौराणिक वर्णन के उपरान्त इस स्थान के बारे में जो साक्ष्य मिलता है, वह लगभग 1300 वर्ष पुराना हैं। इस दृष्टि से यह स्थान शेखावाटी का प्राचीनतम स्थल हैं।
यहां पर तीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे इस स्थान की प्राचीनता सिद्ध होती हैं। जाने माने पुरातत्वविद डा. भण्डारकर ने यहां का दौरा किया था तथा यहां के शिलालेखों का अध्ययन कर यहां की प्राचीनता की स्वीकारा था। इतिहासवेत्ता पं गौरीशंकर ओझा व पदम भूषण पण्डित झाबरमल शर्मा 1935 में इस स्थान पर आये थे। मन्दिर के बाहर वाली दीवारें निसंदेह प्राचीन है। वे आठवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में निर्मित मानी जाती हैं। यहां जो भी शिला लेख व भिति लेख मिलते हैं, वे इस सम्पूर्ण क्षेत्र मे उपलब्ध एक मात्र साक्ष्य हैं, जो सम्पूर्ण क्षेत्र की प्राचीनता की पुष्टि करते हैं। यह स्थान सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल के समकालीन रहा हैं एवं उसी वक्त यहां काली की प्रतिमा स्थापित हुई होगी ऐसी सम्भावना है।
दोनों देवियों की मूर्तियों के मध्य एक छोटी उल्लू कि प्रतिमा भी है जो घाघल देव के नाम से प्रसिद्ध है। माताजी के मन्दिर के निकट ही मदन मोहन जी व जटाशंकर जी के प्राचीन व दर्शनीय देव स्थल हैं। जटाशंकर जी मंदिर में एकमुखी शिवलिंग की बड़ी सुन्दर प्रतिमा है जो 1200-1300 वर्षों पुरानी बतायी जाती है। सकराय मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर कोह कुण्ड नामक स्थान है। यहां एक विशाल कुंड है जिसे रावण कुंड कहा जाता है। कहते हैं कि यहां रावण ने तपस्या की थी। यहां कुंड के किनारे रावणेश्वर महादेव नाम से शिवालय बना हुआ है।
पहले सकराय का मंदिर छोटा था जिसे तात्कालीक महंत गुलाब नाथ जी ने भव्य व वर्तमान स्वरूप प्रदान करवाया था। उनके समय में यहां काफी विकास कार्य हुये थे। मन्दिर में प्रातः मंगल आरती एवं सांय बाल आरती होती हैं। दोपहर में दोनों मूर्तियों को एक साथ शाकाहारी भोग लगाया जाता हैं। जात-जड़ूला करने आने वाले श्रद्धालु सीरा-पुड़ी-सुसवा का भोग लगाते हैं। वैसे तो यहां हरदम दर्शनार्थी आते रहते हैं, लेकिन चैत्र व आसोज के नवरात्रा में यहां विशाल मेला लगता हैं। सकराय जयन्ती पौष शुक्ल पूर्णिमा को यहां काफी श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं।
यहां के मन्दिर की गद्दी 550 वर्षों से गोरखपंथी नाथ सम्प्रदाय के अधिकार में हैं। इस गद्दी पर बैठने वाला नाथ आजीवन अविवाहित रहतें हैं। वर्तमान में दयानाथ जी महाराज गत 45 वर्षों से यहां के महंत है जिनके निर्देशन में मंदिर में मूलभूत सुविधाओं का विस्तार हुआ है। इससे आने वाले श्रृद्वालुओं को सुविधा मिलने लगी है। उनकी देखरेख में मन्दिर में पूजा,अर्चना सम्पन्न होती हैं। महंत दयानाथ जी पशु प्रेमी हैं। उनके निर्देशन में यहां तीन गऊशालाओं का संचालन किया जाता हैं जिनमें तीन सौ से अधिक गाय व बछड़ें हैं। यहां की गऊशालाओं में गायों का दूध निकाल कर बेचा नहीं जाता है बल्कि पूरा दूध गाय के बछड़ों को पिलाया जाता है। महन्त जी की घुड़शाला में दर्जनों ऊंची नस्ल के घोड़े-घोडियां भी हैं।
महंत दयानाथ जी की प्रेरणा से इन वर्षों में यहां आने वाले यात्रियों के रूकने के लिये आधुनिक सुख-सविधाओं वाले कई विश्राम गृहों का निर्माण हुआ है। मगर फिर भी यहां वर्ष भर देश के विभिन्न भागों से विशिष्ट व्यक्तियों व आम श्रद्वालुओं के आवागमन को देखते हुये जितनी व्यवस्था की गयी हैं वो पर्याप्त नहीं हैं। मंदिर परिसर के पास अधिक स्थान नहीं होने से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने वाहन खड़े करने में परेशानी उठानी पड़ती है। वर्षात के समय तो स्थित और भी विकट हो जाती है। सकराय मंदिर आने वाले समय में गुजरात के अक्षरधाम के भांति नजर आने लगेगा। मंदिर का मास्टर प्लान तैयार कर लिया गया हैं, और जल्द ही निर्माण कार्य शुरू होने की संभावना है। शाकंभरी माता विकास समिति के तत्वावधान में मंदिर के महंत दयानाथ महाराज की देखरेख में जिर्णोद्धार होगा। मंदिर से आधा किलोमीटर पहले धर्मशाला का निर्माण होगा, जिसमें कॉटेज व्यवस्था शामिल होगी। बाहर से आने वाले श्रद्धालु यहां पर आराम करने के बाद माता के मंदिर के लिए रवाना हो सकेगें। यहीं से मंदिर परिसर तक वाहन उपलब्ध होंगे व पार्किंग व्यवस्था भी उपलब्ध होगी। माता के मंदिर से पहले दो द्वार बनाए जाएंगे, जिसमें 64 जोगनी, भैंरू व सिंह पर सवार मां दुर्गा की प्रतिमाएं हांेगी।
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