मणिपुर चक्र को जागृत करने वाली चन्द्रघंटा -अशोक “प्रवृद्ध”
पौराणिक मान्यतानुसार दैत्यों के संहार एवं अनीति व अनाचार के नाश हेतु ही भगवती दुर्गा नव रूपों में प्रकट हुई है, जिसमें दुर्गा के तृतीय स्वरूप को चंद्रघण्टा (चंद्रघंटा) के नाम से जाना जाता है। भक्तों की भय, पीड़ा व दुःखों को मिटाकर उनके मनोरथ को पूर्ण करने वाली देवी के इस रूप की उत्पत्ति नवरात्रि के तीसरे दिन होती है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन चन्द्रघंटा की पूजा का अत्यधिक महत्व होने के कारण इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-अर्चना किये जाने का विधान है। इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है। परम शांतिदायक और कल्याणकारी स्वरूप वाली चन्द्रघंटा का यह स्वरूप सभी प्रकार की अनूठी वस्तुओं को देने वाला तथा कई प्रकार की विचित्र दिव्य ध्वनियों को प्रसारित व नियंत्रित करने वाला होता है। नित्य व बारम्बार नमनीय चन्द्रघंटा की कृपा से व्यक्ति की घ्रांण शक्ति और भी दिव्य हो जाने के कारण वह कई प्रकार की सुगन्धों अर्थात खुशबुओं का एक साथ आनन्द लेने में सक्षम हो जाता है। मान्यता है कि चन्द्रघंटा देवी की कृपा से भक्त को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन और दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा उसे कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं। चन्द्रघंटा का ध्यान भक्त के इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। दैत्यों का वध करके देव, दनुज, मनुजों के हितों की रक्षा करने वाली माता के घण्टा में आह्ल्लादकारी चंद्रमा स्थित होने के कारण उन्हें चन्द्रघण्टा (चन्द्रघंटा) कहा जाता है। चंद्रघंटा अर्थात जिनके माथे पर अर्द्ध चंद्र शोभित हो रहा है। सुवर्ण रंगों की कान्ति वाली ऐसी नवदुर्गा के इस तृतीय स्वरूप को चन्द्रघण्टा के नाम से ख्याति प्राप्त हुई है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेतबाधा से रक्षा करती है। दैत्यों का संहार भयानक घण्टे की नाद से करने वाली माँ चंद्रघंटा खडग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित दस भुजा धारी है, जिनके दाहिने हाथ में ऊपर से पद्म, वाण, धनुष, माला आदि शोभित हो रहे हैं तथा बाएं हाथ में त्रिशूल, गदा, तलवार, कमण्डल तथा युद्ध की मुद्रा शोभित हो रही है। सिंह में सवार होकर जगत के कल्याण हेतु दुष्ट दैत्यों का संहार करने वाली माँ का यह रूप शत्रुओं को मारने हेतु सदैव तत्पर रहता है। सिंह पर सवार सदैव युद्ध मुद्रा में युद्ध के लिए उद्धत रहने वाली चन्द्रघंटा देवी की घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। सर्वत्र विराजमान और चन्द्रघंटा के रूप में प्रसिद्ध चन्द्रघंटा के पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। इनकी आराधना से मनुष्य के हृदय से अहंकार का नाश होता है तथा वह असीम शांति की प्राप्ति कर प्रसन्न होता है। माँ चन्द्रघण्टा मंगलदायनी है तथा भक्तों को निरोग रखकर उन्हें वैभव तथा ऐश्वर्य प्रदान करती है। उनके घंटो में अपूर्व शीतलता का वास है।
शाक्त ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध मार्कंडेय पुराण के देवी सप्तशती के अनुसार श्रीदुर्गा का तृतीय स्वरूप चंद्रघंटा की पूजा -आराधना नवरात्रि के तीसरे दिन करने का विधान है। इसलिए नवरात्र के तीसरे दिन माँ चन्द्रघण्टा की पूजा शास्त्रीय विधान के साथ करना चाहिए। शारीरिक शुद्धता के साथ ही मन की पवित्रता का भी ध्यान रखते हुए इस दिन माता की पूजा विविध प्रकार के सुगन्धित पुष्पों, द्रव्यों तथा विभिन्न प्रकार के नैवेद्यों व इत्रों से करने का विधान है। मान्यता है कि देवी के तृतीय स्वरूप चंद्रघंटा के विधिवत पूजन -अर्चा से भक्तों को वांछित फलों की प्राप्ति तथा शारीरिक पीड़ाओं का अंत होता है। पूजा व क्षमा प्रार्थना के बाद माता का नमन करते हुए पूजा व आराधना को माता को अर्पण कर देना चाहिए। नवरात्रि के तीसरे दिन सांवली रंगत की महिला को घर बुलाकर पूजा-अर्चना कर भोजन में दही-हलवा आदि खिलाना चाहिए। कलश व मंदिर की घंटी भेंट करना चाहिए। मान्यता है कि माता चन्द्रघंटा की आराधना करने से निर्भयता व सौम्यता दोनों ही प्राप्त होती है।
देवी के अन्य स्वरूपों की भांति ही तृतीय स्वरूप चन्द्रघंटा के सम्बन्ध में भी पौराणिक कथा प्रचलित है। मार्कंडेय पुराण के देवी सप्तशती में अंकित कथा के अनुसार असुरों के विनाश हेतु माँ दुर्गा के तृतीय स्वरूप में अवतरित होने वाली माता चन्द्रघण्टा भयंकर दैत्य सेनाओं का संहार करके देवताओं को उनका भाग दिलाती है। भक्तों को वांछित फल दिलाने वाली माता चन्द्रघण्टा सम्पूर्ण जगत की पीड़ा का नाश करने वाली है। इनसे समस्त विद्याओं का ज्ञान होने के कारण इन्हें ही मेधा शक्ति माना गया है। भव सागर से पार उतारने वाली दुर्गा भी यही हैं। पौराणिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस आश्चर्यजनक सत्य का सत्यापन होता है कि इनका मुख मंद मुस्कान से सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला और उत्तम सुवर्ण की मनोहर कान्ति से कमनीय होने के कारण ही उसे देखकर महिषासुर को क्रोध हुआ और उसने सहसा उस पर प्रहार कर दिया था , लेकिन जब देवी का वही मुख क्रोध से युक्त होने पर उदयकाल के चन्द्रमा की भांति लाल और तनी हुई भौहों के कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर ही महिषासुर के प्राण तुरंत निकल गये, क्योंकि क्रोध में भरे हुए यमराज को देखकर भला कौन जीवित रह सकता है? परमात्मस्वरूपा के प्रसन्न होने पर जगत का अभ्युदय होता है और क्रोध में भर जाने पर ये तत्काल ही कितने कुलों का सर्वनाश कर डालती हैं। महिषासुर की विशाल सेना क्षण भर में ही इनके कोप से नष्ट हो गई। कथानुसार देवी चन्द्रघण्टा ने राक्षस समूहों का संहार करने के लिए जैसे ही धनुष की टंकार को धरा व गगन में गुंजा दिया वैसे ही माँ के वाहन सिंह ने भी दहाड़ना आरम्भ कर दिया और माता फिर घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और बढ़ा दिया, जिससे धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएं गूँज उठी। उस भयंकर शब्द व अपने प्रताप से देवी दैत्य समूहों का संहार कर विजय हुई।
माता चंद्रघण्टा के विविध मन्त्र पौराणिक ग्रन्थों में अंकित प्राप्य हैं। माँ की स्तुति के अनेक मंत्र दुर्गा सप्तशती नामक ग्रंथ में अंकित है। उनके रूप लावण्य सहित उनकी प्रतिमा का वर्णन व उनके मंत्रों का वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। ग्रन्थों में माता चंद्रघण्टा की पूजा विधि-विधान व श्रद्धा भाव से करने के सम्बन्ध में विवरण अंकित करते हुए उनकी पूजन व ध्यान हेतु निम्न मन्त्र निर्दिष्ट है-
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।
पौराणिक ग्रन्थों में प्रचण्ड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवी चन्द्रघंटा की जय जयकार करते हुए उनसे रूप, जय, यश प्राप्ति और काम क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करने की कामना करते हुए माँ दुर्गा के तृतीय रूप चंद्रघण्टा को बारंबार प्रणाम किया गया है। दुर्गा सप्तशती और विविध पुरातन ग्रन्थों के अनुसार माँ की कांति स्वर्णिम है तथा सिंह के ऊपर सवार होती हैं। माँ दुर्गा के ही रूप माता चन्द्रघण्टा के व्रत अनुष्ठान व पूजन से वांछित फलों की प्राप्त होती है। रोग, पीड़ाओं सहित कई तरह के दर्द दूर होते हैं। इसलिए यत्न पूर्वक नवरात्रि के पावन पर्व पर माता की अर्चना करनी चाहिए। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। इसलिए मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध- पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। यह देवी कल्याणकारी है। चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय, चेहरा शांत एवं सौम्य और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है। माता के सिर पर अर्द्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा है, जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है। अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान करती हैं। मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं। माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं। माँ चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं। देवी चंद्रघंटा की मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती है। इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनकी अराधना सद्य: फलदायी है। इसीलिए भक्तों को देवी चंद्रघंटा की वंदना शाक्त ग्रन्थों में वर्णित मन्त्रों से करना चाहिए।
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