कभी कभी हैं ऐसा लगता
कभी कभी हैं ऐसा लगतापत्थर की मूरत बन गईं हूं
दर्द बहुत हैं सीने में
पर आंसू नहीं गिरते नयन से
जी चाहता खूब दहारु
रोयू, खूब चिल्लाऊं
लेकिन अब होता नहीं मुझमें
शायद भावनाएं मर गई मुझमें
पीरा इतना है मन में
दोस्तों को भी क्या सुनाऊं
वो भी एक दिन कह देंगे
यार जायदा मत ऊबायो हमें
मन की व्यथा प्रभु ही जाने
इनके अलावा कोई ना पहचाने
वही हैं सबके पालनकर्ता
सुखकर्ता और विघ्नहर्ता
मात पिता तुम्ही सबके
तुम ही सखा तुम ही प्रियेते
तुम ही आदि और अनंत हो
तुम ही आरंभ और अंत हो।ऋचा श्रावणी
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