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मन व इन्द्रियों को वश में करने की सीख

मन व इन्द्रियों को वश में करने की सीख

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘अस्य’ पद किसका वाचक है और ‘इसकी आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-‘अस्य’ पद, यहाँ जिसका प्रकरण चल रहा है उस स्थित प्रज्ञ योगी का वाचक है तथा उपर्युक्त कथन से यहाँ यह दिखलाया गया है कि उस स्थित प्रज्ञ योगी को परमानन्द के समुद्र परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने के कारण उसकी किसी भी सांसारिक पदार्थ में जरा भी आसक्ति नहीं रहती। क्योंकि आसक्ति का कारण अविद्या है। उस अविद्या का परमात्मा से साक्षात्कार होने पर अभाव हो जाता है। साधारण मनुष्यों को मोहवश इन्द्रियों के भोगों में सुख की प्रतीति हो रही है, इसी कारण उनकी उन भोगों में आसक्ति है; पर वास्तव में भोगों में सुख का लेश भी नहीं है। उनमें जो भी सुख प्रतीत हो रहा है, वह भी उस परम आनन्द स्वरूप परमात्मा के आनन्द के किसी अंश का आभास मात्र ही है। जैसे अँधेरी रात में चमकने वाले नक्षत्रों में जिस प्रकाश की प्रतीति होती है वह प्रकाश सूर्य के ही प्रकाश का आभास है और सूर्य के उदय हो जाने पर उनका प्रकाश लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार सांसारिक पदार्थों में प्रतीत होने वाला सुख आनन्दमय परमात्मा के आनन्द का ही आभास है; अतः जिस मनुष्य को उस परम आनन्द स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, उसको इन भोगों में सुख की प्रतीति ही नहीं होती और न ही उनमें उसकी किंचित मात्र भी आसक्ति ही रहती है।

क्योंकि परमात्मा एक ऐसी अद्भुत, अलौकिक, दिव्य आकर्षक वस्तु है जिसके प्राप्त होने पर इतनी तल्लीनता, मुग्धता और तन्मयता होती है कि अपना सारा आपा ही मिट जाता है; फिर किसी दूसरी वस्तु का चिन्तन कौन करे? इसीलिये परमात्मा के साक्षात्कार से आसक्ति के सर्वथा निवृत्त होने की बात कही गयी है।

इस प्रकार आसक्ति न रहने के कारण स्थित प्रज्ञ के संयम में केवल विषयों की ही निवृ़ित्त नहीं होती, मूल सहित आसक्ति का भी सर्वथा अभाव हो जाता है; वह उसकी विशेषता है।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। 60।।

प्रश्न-‘हि’ पद का यहाँ क्या भाव है?

उत्तर-‘हि’ पद यहाँ देहली-दीपक न्याय से इस श्लोक का पूर्व श्लोक से तथा अगले श्लोक के साथ भी सम्बन्ध बतलाता है। पिछले श्लोक में यह बात कही गयी कि विषयों का केवल स्वरूप से त्याग करने वाले पुरुष के विषय ही निवृत्त होते हैं, उनमें उसका राग निवृत्त नहीं होता। इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि राग के निवृत्त न होने से क्या हानि है। इसके उत्तर में इस श्लोक में यह बात कही गयी है कि जब तक मनुष्य की विषयों में आसक्ति बनी रहती है, तब तक उस आसक्ति के कारण उसकी इन्द्रियाँ उसे बलात्कार से विषयों में प्रवृत्त कर देती है; अतएव उसकी मन सहित बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में स्थिर नहीं हो पाती और चूँकि इन्द्रियाँ इस प्रकार बलात्कार से मनुष्य के मन को हर लेती हैं, इसीलिये अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं कि इन सब इन्द्रियों को वश में करके मनुष्य को समाहित चित्त एवं मेरे परायण होकर ध्यान में स्थित होना चाहिये। इस प्रकार ‘हि’ पद से पिछले और अगले दोनों श्लोकों के साथ इस श्लोक का सम्बन्ध बतलाया गया है।

प्रश्न-‘इन्द्रियाणि’ पद के साथ ‘प्रमाथीनि’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-‘प्रमाथीनि’ विशेषण का प्रयोग करके यह दिखलाया गया है कि जब तक मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं हो जातीं और जब तक उसकी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति रहती है, तब तक इन्द्रियाँ मनुष्य के मन को बार-बार विषय सुख का प्रलोभन देकर उसे स्थिर नहीं होने देतीं, उसका मन्थन ही करती रहती हैं।

प्रश्न-यहाँ ‘यतत’ और ‘विपश्चितः‘-इस दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुषस्य पद किस मनुष्य का वाचक है और ‘‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-जो पुरुष शास्त्रों के श्रवण-मनन से और विवेक-विचार से विषयों के दोषों को जान लेता है और उनसे इन्द्रियों को हटाने का यत्न भी करता रहता है, किन्तु जिसकी विषया सक्ति का नाश नहीं हो सका है, इसी कारण जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं ऐसे बुद्धिमान यज्ञशील साधक का वाचक यहाँ ‘यततः‘ और ‘विपश्चित’-इन दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुषस्य’ पद है; इनके सहित ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया है कि जब ये प्रमथनशील इन्द्रियां विषयासक्ति के कारण ऐसे बुद्धिमान विवेकी यज्ञशील मनुष्य- के मन को भी बलात्कार से विषयों में प्रवृत्त कर देती हैं, तब साधारण लोगों की तो बात ही क्या है। अतएव स्थित प्रज्ञ अवस्था प्राप्त करने की इच्छा वाले मनुष्य को आसक्ति का सर्वथा त्याग करके इन्द्रियों को अपने वश में करने का विश्ेाष प्रयत्न करना चाहिये।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। 61।।

प्रश्न-यहाँ इन्द्रियों के साथ ‘सर्वाणि’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-समस्त इन्द्रियों को वश में करने की आवश्यकता दिखलाने के लिये ‘सर्वाणि’ विशेषण दिया गया है, क्योंकि वश में न की हुई इन्द्रिया भी मनुष्य क मन-बुद्धि को विचलित करके साधन में विघ्न उपस्थित कर देती है। अतएव परमात्मा की प्राप्ति चाहने वाले पुरुष को सम्पूर्ण इन्द्रियों को ही भलीभाँति वश में करना चाहिये।

प्रश्न-‘समाहित चित्त’ और ‘भगवत्परायण’ होकर ध्यान में बैठने के लिए कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इन्द्रियों का संयम हो जाने पर भी यदि मन वश में नहीं होता तो मन के द्वारा विषय-चिन्तन होकर साधन का पतन हो जाता है और मन-बुद्धि के लिये परमात्मा का आधार न रहने से वे स्थिर नहीं रह सकते। इस कारण समाहित चित्त और भगवत्परायण होकर परमात्मा के ध्यान में बैठने के लिये कहा गया है। छठे अध्याय के ध्यान योग के प्रसंग में भी यही बात कही गयी है। इस प्रकार मन और इन्द्रियों को वश में करके परमात्मा के ध्यान में लगे हुए मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है और उसको शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

प्रश्न-जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है-इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-श्लोक के पूर्वार्द्ध में इन्द्रियों को वश में करके तथा संयतचित्त और भगवत्परायण होकर ध्यान में बैठने के लिये कहा गया, उसी कथन के हेतु रूप से इस उत्तरार्द्ध का प्रयोग हुआ है। अतः इसका यह भाव समझना चाहिये कि ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके मन और इन्द्रियों को संयमित कर बुद्धि को परमात्मा के स्वरूप में स्थिर करना चाहिये, क्योंकि जिसके मन सहित इन्द्रियाँ वश में की हुई होती हैं, उसी साधक की बुद्धि स्थिर होती है; जिसके मन सहित इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती। अतः मन और इन्द्रियों को वश में करना साधक के लिये परम आवश्यक है।
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