स्वाधिष्ठान चक्र में मन को स्थापित करने वाली ब्रह्मचारिणी:-अशोक “प्रवृद्ध”
नवरात्र पर्व के दूसरे दिन नवदुर्गाओं में द्वितीय माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना किये जाने की परिपाटी है। पौराणिक मान्यतानुसार श्रीदुर्गा के द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी का अर्थ है आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ है- तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है। अपने दोनों करकमलों मे अक्षमाला एवं कमंडल धारण करने वाली सर्वश्रेष्ठ माता भगवती ब्रह्मचारिणी अपने भक्तों पर अति प्रसन्न होती हैं। पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य स्वरुप वाली माता ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तों पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करती है। यही कारण है कि भक्तगण नवरात्र के दूसरे दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं और कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए भी साधना करते हैं, ताकि उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें। माता ब्रह्मचारिणी की कृपा से भक्तों को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा आदि इस देवी के कई अन्य नाम हैं। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना से इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। इस दिन ऐसी कन्याओं का पूजन किए जाने का विधान है, जिनका विवाह तय हो गया है लेकिन अभी शादी नहीं हुई हो। इन्हें अपने घर बुलाकर पूजन के पश्चात भोजन कराकर वस्त्र, पात्र आदि भेंट अर्पित की जाती है। लोकमान्यतानुसार भक्तों और सिद्धों को अनन्त फल देने वाली माँ दुर्गा के दूसरे स्वरूप की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है और जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता है। नवरात्रि में द्वितीय दिन माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए निम्न श्लोक का पाठ किए जाने का विधान है-
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थात- हे माँ ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
जो दोनों कर-कमलों में अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार हिमालय और मैना की पुत्री माता ब्रह्मचारिणी ने देवर्षि नारद के कहने पर भगवान शंकर की ऐसी कठोर तपस्या कि जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने इन्हें भगवान भोलेनाथ की वामिनी अर्थात पत्नी बन पाने की मनोवांछित वरदान दिया। जिसके फलस्वरूप यह देवी भगवान भोलेनाथ की पत्नी बन गई । मार्कण्डेय पुराण के देवी सप्तशती के अनुसार पूर्व जन्म में हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने पर नारद के उपदेश से भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए इनके द्वारा कठिन व दुष्कर तपस्या किये जाने के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। कथानुसार इन्होंने एक हज़ार वर्ष तक केवल फल खाकर व्यतीत किए और सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के विकट कष्ट सहे, इसके बाद में केवल ज़मीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को खाकर तीन हज़ार वर्ष तक भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। कई हज़ार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार रह कर व्रत करती रहीं। पत्तों को भी छोड़ देने के कारण उनका नाम अपर्णा भी पड़ा। इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया था। उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मैना देवी अत्यन्त दुखी हो गयीं। उन्होंने उस कठिन तपस्या से विरत करने के लिए उन्हें आवाज़ दी उमा, अरे ऐसा नहीं करो। तब से देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम उमा पड़ गया था। उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ॠषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अन्त में पितामह ब्रह्मा ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- देवी! आज तक किसी ने इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन पूर्ण होगी। भगवान चन्द्रमौलि शिव तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ। ब्रह्मा के वरदान के पश्चात देवी लौट आई और उन्हें उस तपस्या के परिणाम स्वरूप शिव पति रूप में प्राप्त हुए और देवी ब्रह्मचारिणी नाम से संज्ञायित पूजित हुई ।
मान्यता है कि अध्यात्म और आत्मिक आनंद की कामना रखने वाले व्यक्ति को इस देवी की पूजा से सहज ही इन सबकी प्राप्ति हो जाती है। देवी का ब्रह्मचारिणी स्वरूप योग साधक को साधना के केन्द्र के उस सूक्ष्मतम अंश से साक्षात्कार करा देता है जिसके पश्चात व्यक्ति की ऐन्द्रियां अपने नियंत्रण में रहती और साधक मोक्ष का भागी बनता है। देवी की प्रतिमा की पंचोपचार सहित पूजा करके स्वाधिष्ठान चक्र में मन को स्थापित करने वाले साधक की साधना सफल हो जाती है और कुण्डलनी शक्ति जागृत हो जाती है। भक्ति भाव एवं श्रद्धा से दुर्गा पूजा के दूसरे दिन मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करने वाले साधक को सुख, आरोग्यता, प्रसन्नता और निर्भयता की प्राप्ति होती है। देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय है। ब्रह्मचारिणी देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं। मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है, जो तीनों लोकों को उजागर कर रहा है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा विधि- विधान से करने के लिए सर्वप्रथम जिन देवी-देवताओं , गणों एवं योगिनियों को कलश में आमंत्रित किया गया है, उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन आदि से पूजा कर उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान कराकर देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित करना चाहिए, औरउसमें से एक अंश ब्रह्मचारिणी को भी अर्पण करना चाहिए। प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करना चाहिए। कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करने के पश्चात माता ब्रह्मचारिणी की पूजा करना चाहिए। देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल ले शाक्त ग्रन्थों में अंकित मन्त्र से प्रार्थना करना चाहिए। इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान कराने के पश्चात भांति -भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करना चाहिए, क्योंकि देवी को लाल रंग का अरहुल का फूल व कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें। प्रसाद और आचमन के पश्चात पान सुपारी भेंट कर प्रदक्षिणा करना चाहिए और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करना चाहिए। और अंत में आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी मन्त्र से क्षमा प्रार्थना करना चाहिए।
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