श्राद्ध के कारण पितृदोष के कष्ट से रक्षा कैसे होती है ?
श्राद्ध हिन्दू धर्म का पवित्र कर्म है। शक संवत अनुसार भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदासे भाद्रपद अमावस्या तक के एवं विक्रम संवत अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या तक के पंंद्रह दिन की कालावधि में पितृतर्पण एवं तिथि के दिन पितरों का श्राद्ध किया जाता है, इस कालावधि में पितर यमलोक से आकर अपने परिवार के सदस्योंके घर में वास करते हैं । श्राद्ध से पूर्वजों के कष्टों से हमारा रक्षण कैसे होता है ? इत्यादि सूत्रों का अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन इस लेख में देखेंगे । इन सभी सूत्रों से हिन्दू धर्म का महत्त्व हमारे ध्यान में आएगा ।
श्राद्ध के कारण पितृदोष के कष्ट से रक्षा कैसे होती है ?
‘श्राद्ध द्वारा उत्पन्न ऊर्जा मृत की लिंगदेह में समाई हुई त्रिगुणात्मक ऊर्जा से साम्य दर्शाती है; इसलिए अल्पावधि में श्राद्ध से उत्पन्न ऊर्जा के बल पर लिंगदेह मर्त्यलोक पार करती है । (मर्त्यलोक भूलोक एवं भुवर्लोक के मध्य स्थित है ।) एक बार जो लिंगदेह मर्त्यलोक पार कर लेती है, वह पुनः लौटकर पृथ्वी पर रहनेवाले सामान्य व्यक्ति को कष्ट देने के लिए पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में नहीं आ सकती । इसीलिए श्राद्ध का अत्यधिक महत्त्व है; अन्यथा विषय-वासनाओं में फंसी लिंगदेह, व्यक्ति की साधना में बाधाएं उत्पन्न कर उसे साधना से परावृत्त (विमुख) कर सकती हैं ।’
क्या श्राद्ध नियमित करना आवश्यक है ?
मृत व्यक्ति की तिथि पर श्राद्ध करने पर वह अन्न उसकी सूक्ष्म-देह के लिए वर्ष भर के लिए पर्याप्त होता है । जब तक इच्छा-आकांक्षाएं रहती हैं, तब तक वह मृत व्यक्ति उस तिथि को अपने वंशजों से अन्न मिलने की अपेक्षा रखता है । श्राद्ध करने से उनकी इच्छापूर्ति तो होती ही है, साथ ही, उन्हें आगे (उच्च लोकोंमें) जाने के लिए ऊर्जा भी मिलती है । पूर्वजों की एक भी वासना तीव्र रही, तो श्राद्धविधि से (श्राद्ध कर्म से) प्राप्त ऊर्जा उनकी वासनापूर्ति में व्यय होती है । इससे पितरों को आगे जाने के लिए गति प्राप्त नहीं होती । इसलिए नियमित श्राद्ध करने पर धीरे-धीरे उनकी वासना का क्षय होकर उन्हें आगे जाने के लिए गति भी प्राप्त हो सकती है । वैसे भी शास्त्रीय नियमों के अनुसार इस विश्व में रहने तक पितरों के प्रति कृतज्ञता के रूप में प्रतिवर्ष श्राद्ध करना ही उचित है ।
पुत्र किसे कहते हैं और उसका कर्त्तव्य क्या है ?
अपने पुत्रोंद्वारा पिंडोदक (पिंड एवं उदक) दिए जाने पर ही पितर सुखी एवं संतुष्ट होते हैं । ‘पुत्र किसे कहें’ इस विषय पर शास्त्रवचन आगे दिया है –
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः ।तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ – मनुस्मृति अध्याय 9, श्लोक 138
शास्त्रों के अनुसार, पुत्र उसे कहते हैं जो अपने पितरों की (पूर्वजोंका) पुं नामक नरक से रक्षा करता है; उसे स्वयं ब्रह्मदेवने ‘पुत्र’ कहा है । पितरों को सद्गति प्राप्त हो, उन्हें अनंत यातनाओं से मुक्ति मिले एवं पितृलोक से पितर अपने वंश पर कृपादृष्टि रखें, इस हेतु पुत्र श्राद्ध आदि विधियां करे । ब्रह्मवैवर्तपुराण कहता है, ‘देवकार्य की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण पितृकार्य है’; इसलिए सर्व मंगल कार्यों में भी नांदी श्राद्ध का विधान सर्वप्रथम है । ब्रह्मपुराण कहता है, ‘जो व्यक्ति विधिपूर्वक अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मदेव से लेकर तृण तक, सर्व जीवों को तृप्त करता है । श्राद्ध करने वाले के कुल में कोई दुःखी नहीं रहता ।’
एक परिवार में 4 पुत्र हैं और पिता का देहांत हुआ हो तो क्या चारों पुत्रों को पूर्वजों का कष्ट होगा ? ऐसी स्थिति में क्या करें ?
जिस प्रकार परिवार में पिता की मृत्यु होने के उपरांत सभी पुत्र पूर्वजों की संपत्ति, धन तथा वास्तु में समान अधिकार की बात करते हैं, वैसे ही उन पर पितृऋण भी लागू होता है । यदि सभी पुत्रों का भोजन एक ही रसोईघर में बनता है, तो ज्येष्ठ पुत्र को श्राद्धविधि करनी होती है और यदि सभी की रसोई अलग अलग है, तो सभी को श्राद्ध कर पितृऋण से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए । पितृदोष न लगे इसलिए *‘श्री गुरुदेव दत्त’* का नामजप करना चाहिए ।
कैसे समझें कि परिवार में पूर्वजों का कष्ट है ?
हमें पूर्वज कष्ट दे रहे हैं अथवा कष्ट की आशंका है, इस विषय में उन्नत पुरुष (संत) ही बता सकते हैं। ऐसे उन्नत पुरुष न मिलें, तो सामान्यतः मान सकते हैं कि, आगे दिए कुछ प्रकार के कष्ट पूर्वजों के कारण होते हैं – घर में निरंतर लडाई-झगडे होना, एक-दूसरे से अनबन, चाकरी (नौकरी) न मिलना, घर में पैसा न टिक पाना, किसी को गंभीर बीमारी होना, स्थिति अनुकूल होने पर भी विवाह न होना, पति-पत्नी में अनबन, गर्भधारण न होना, गर्भपात होना, यदि संतान का जन्म हो तो वह मतिमंद अथवा विकलांग होना एवं कुटुंब के किसी सदस्य का व्यसनी होना । श्राद्धविधि से पितर संतुष्ट होते हैं और आशीर्वाद देते हैं, साथ ही मर्त्यलोक में अटके हुए पूर्वजों को गति प्राप्त होती है तथा उनके कारण हमारे कष्टों का निवारण होता है ।
श्राद्ध से पितरों को सद्गति कैसे मिलती है ?
श्राद्ध के मंत्रोंद्वारा निर्माण होनेवाली तरंगें, ब्राह्मणों के आशीर्वाद, सगे-संबंधियों की सदिच्छाएं एवं पिंडदान जैसी कर्मकांड की विधियों का अलौकिक परिणाम होता हैं । इन परिणामों को तर्कद्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता । इससे लिंगदेह के सर्व ओर कवच का निर्माण होता है एवं उसे आगे की गति मिलती है । नरक, भुवर्लोक, पितृलोक एवं स्वर्ग में इन विधियों का लाभदायक परिणाम होता है ।’
जब तक गर्भाशय से बालक सुरक्षित बाहर नहीं निकलता, तब तक मां उसे सुरक्षा-कवच देती है, उसी प्रकार श्राद्ध की विधियों द्वारा पितरों के लिए भी समय-समय पर सुरक्षा-कवच की पूर्ति की जाती है ।
श्राद्ध में पितरों को अर्पित अन्न, उन तक कैसे पहुँचता है ?
‘मत्स्यपुराण में (अध्याय 19, श्लोक 3 से 9, अध्याय 141, श्लोक 74-75) श्राद्ध के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है, जो इस प्रकार है – ब्राह्मणोंद्वारा खाया हुआ या होमाग्नि में अर्पित अन्न मृतात्माओं को कैसे प्राप्त होता है ? इसलिए कि मृत्यु के पश्चात आत्माएं पुनर्जन्म प्राप्त कर दूसरी देह में आश्रय लेती हैं । इसका उत्तर वहीं दिया हुआ है, जो इस प्रकार है – वसु, रुद्र तथा आदित्य, इन पितृ देवताओं द्वारा वह अन्न पितरों को प्राप्त होता है अथवा वे अन्न भिन्न पदार्थों जैसे अमृत, तृण, भोग, वायु आदि में रूपांतरित होकर भिन्न-भिन्न योनि के पितरों को मिलते हैं ।’
श्राद्धीय भोजन के लिए उचित पदार्थ कौन से हैं ?
1. दाल (उबली हुई मसाले रहित), चावल, कढी, टूटे हुए चावलों की खीर, बडे, पूडी, आम अथवा नींबू का ताजा अचार एवं सत्तू (विविध दालों को भूनकर एवं पीसकर बनाया गया एक खाद्यपदार्थ),
2. खीरा, मूली, कद्दू, गोेभी, सेम (पतली एवं गुच्छेदार प्रकार), सूरन, धारीधार तोरई, अरबी, चंदन बटवा एवं अदरक,
3. तिल, जौ, मूंग, चना, गाय का दूध, दही, मट्ठा, मधु, चीनी, गुड, तेल एवं घी
4. लड्डू, पायस, गेहूं के पदार्थ, तैलपक्व (तले हुए) पदार्थ, चूसकर खाए जानेवाले पदार्थ, लौंग, सुपारी एवं बीडा ।
जिसका श्राद्ध कर रहे हैं, उसके जीवनकाल में उसे जो पदार्थ अच्छे लगते थे, वे पदार्थ श्राद्ध के समय ब्राह्मणों को परोसें । (श्राद्ध में ब्राह्मणभोजन महत्त्वपूर्ण माना गया है ।)
अधिक उचित पदार्थ (पुष्प, फल एवं धान) : ‘अगस्त, कांचन, मोगरा, जाही, जूही, दोलन चंपा, सुगंधा, कनकचंपा, नागचंपा, पारिजात, बकुल (मौलसिरी), सुरंगी इत्यादि पुष्प; बिजौरा, उंबर, आंवला, इमली, कोकम (इमली जैसा खट्टा पदार्थ), अंमडा (एक खट्टा फल), कैथ (कपित्थ – एक कडवा फल), मकई के दाने, अखरोट, चिरौंजी, छुहारा, खजूर, नारियल, केले, अंगूर, अनार, बेर, कटहल, खरबूजा इत्यादि फल एवं सूखा मेवा; काली उडद, सांवा, चना, चूका (एक खट्टा साग), प्रियंगु (चेना), रसों का कल्क (पीसकर बनाया गया द्रव पदार्थ), देवधान (अपनेआप उगनेवाले चावल) एवं खीलें ।
श्राद्ध कर्म में कौन सी वर्स्तुएँ वर्जित हैं और क्यों ?
श्राद्ध के लिए निषिद्ध पदार्थ हैं – प्याज, लहसुन, नमक, बैंगन, मटर, हरीक एवं पुलक नाम के चावल, रामदाना, मुनगा (सहिजन), गाजर, कुम्हडा, किडंग (एक आयुर्वेदिक औषधि), चिचडा, मांस, काला जीरा, काली मिर्च, काला नमक, शीतपाकी, अंकुरित होनेवाला अनाज, सिंघाडा, जामुनी रंग के एवं सडे-गले पदार्थ ।’
इसका कारण है ये पदार्थ तमोगुण बढानेवाले हैं । तमोगुण जडत्व बढाता है । ऐसा अन्न ग्रहण करनेवाले पितरों में जडत्व की निर्मिति होकर उनकी आगे की गति बाधित होती है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध – भाग 2 ’
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