मूलाधार चक्र जागृत करने हेतु शैलपुत्री पूजन -अशोक “प्रवृद्ध”
नवरात्रि अर्थात दुर्गा पूजन का त्यौहार वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और पौष माह में मनाया जाता है, परन्तु चैत्र और आश्विन मास में नवरात्रि का पर्व विशेष धूमधाम और समारोहपूर्वक मनाये जाने की पौराणिक परिपाटी है। चैत्र मास के नवरात्रि को वासन्तिक नवरात्र और आश्विन के नवरात्रि को शारदीय नवरात्र कहा जाता है। इस वर्ष आगामी 26 सितम्बर 2022 आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का प्रारम्भ होने जा रहा है। चैत्र और आश्विन दोनों ही मासों में दुर्गा पूजा का विधान एक जैसा ही है, दोनों ही प्रतिपदा से नवमी तिथि तक मनायी जाती है। देवी दुर्गा के नौ रूप माने गये हैं। नौ दिन तक चलने वाले नवदुर्गा पूजा क्रम अथवा नवरात्र व्रत उपासना का मूल स्रोत मार्कण्डेय पुराण का दुर्गा सप्तशती ग्रन्थ है। वहाँ मार्कण्डेय ऋषि के पूछे जाने पर ब्रह्मा ने देवी के नौ स्वरूपों - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चण्ड - खण्डा- दुर्गा, कूष्माणडा दुर्गा, स्कन्द दुर्गा, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदायिनी - को नवदुर्गा की संज्ञा दी है। नवरात्र पूजन के प्रथम दिन मां दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की पूजन- अर्चना होती है। माँ शैलपुत्री दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया है। इन्हें मां पार्वती का ही अवतार माना जाता है। नवरात्रि के प्रथम दिन शैलपुत्री के पूजन करने से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है। जिससे मनुष्य को अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का आरम्भ होता है।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा शैलपुत्री अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थी। तब इनका नाम सती था। उस समय इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। एक बार दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमन्त्रित किया, लेकिन अपने जामाता शंकर को उन्होंने इस यज्ञ में निमन्त्रित नहीं किया। अपने पिता दक्ष के द्वारा आयोजित की जाने वाली बिशाल यज्ञ की बात जानकर सती का मन वहाँ जाने की लिए विकल हो उठा। सती ने अपनी यह इच्छा शंकर को बतलाई। जिसे सुन शंकर ने कहा कि प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं, इसलिए अपने यज्ञ में उन्होंने सभी देवताओं को तो निमन्त्रित कर उनके यज्ञ भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें नहीं बुलाया है। कोई सूचना अथवा निमंत्रण तक नहीं भेजी है। ऐसी परिस्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना श्रेयस्कर नहीं होगा। शंकर के इस बात को सुन भी सती को बोध नहीं हुआ, और उन्होंने जाने की जिद्द ठानी। पिता का यज्ञ देखने और माता व बहनों से मिलने की व्यग्रता और जाने की सती के प्रबल आग्रह को देखकर शंकर ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी। पति की आज्ञा पा सती पिता के घर पहुँच तो गई, परन्तु वहाँ उन्हें आभाष हुआ कि वहाँ कोई भी उनसे आदर और प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं कर रहा है। वहाँ सिर्फ उनकी माता ने उन्हें स्नेहवश गले लगाया, अन्य सारे लोग मुँह फेरे हुए थे। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास का भाव देख तथा अपने परिजनों के इस व्यवहार से सती के मन को भारी संताप हुआ। उन्हें यह स्पष्ट महसूस हुआ कि वहाँ चतुर्दिक उसके पति शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा है। दक्ष ने सती के पति शंकर के प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देख- सुन कर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से भर उठा। उन्हें लगा, अपने पति शंकर की बात न मान यहाँ आकर उन्होंने बहुत बड़ी ग़लती की है। वह अपने पति का अपमान सह न सकीं और उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं यज्ञाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। उस दारुण दु:खद घटना को सुनकर शंकर ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया। सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्वभंजन किया था।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी शैलपुत्री इस जन्म में भी शिव की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को शैलपुत्री रूप की पूजा और उपासना की जाती है। आवाहन, स्थापन और विसर्जन ये तीनों आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रात:काल ही होते हैं। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोये जाते हैं। उस पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश पर मूर्ति की स्थापना होती है। मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनाया जाता है। कलश को सनातन परम्परा में मंगलमूर्ति गणेश का स्वरूप माने जाने के कारण सबसे पहले कलश की स्थापना की जाती है। कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त अर्थात शुद्ध कर गोबर और गंगाजल से भूमि की लिपाई की जाती है, और विधि- विधान के अनुसार इस स्थान पर अक्षत डालने के बाद उस पर कुमकुम मिलाया जाता है। तत्पश्चात इस पर कलश स्थापित किया जाता है।
पौराणिक मान्यतानुसार दुर्गा को मातृशक्ति अर्थात स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर पूजन किये जाने के कारण इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित कर कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किये जाने का विधान है। शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री की पूजा करने के लिए कलश में सप्तमृतिका अर्थात सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है। इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं, जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है तथा इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है। इसे जयन्ती कहते हैं, तथा इसे “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते” मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है। इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं। शाक्त ग्रन्थ देवी सप्तशती में माँ शैलपुत्री का ध्यान मन्त्र निम्नांकित है-
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्।।
पूर्णेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्।।
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता।।
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्।।
उल्लेखनीय है कि देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है, और उनके दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है। भगवान भोलेनाथ की भी पूजा की जाती है। प्रथम पूजन के दिन शैलपुत्री के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है। कलश स्थापना के पश्चात दुर्गम नामक प्रलयंकारी असुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराने वाली देवी दु्र्गा का आह्वान किया जाता है। नवरात्र काल में प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती होती है। आरती में जग जननी जय जय और जय अम्बे गौरी के गीत भक्त जन गाते हैं। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रि के नौ दिनों में विधि पूर्वक देवी के सभी रूपों की अराधना करने से मनचाहा वर हासिल होता है। मां शैलपुत्री का पूजन कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए मां को श्वेत वस्त्र एवं सफेद पुष्प ही अर्पित करना चाहिए। चढ़ावे में कंद मूल मौसमी फलों का भोग भी लगा सकते हैं। मां शैलपुत्री की पूजा के दौरान मां से सम्बन्धित -"ॐ शैल पुत्रैय नमः” । निम्न मंत्र का जाप भी किया जा सकता है। कहते हैं कि मां शैलपुत्री की आराधना से मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। साथ ही साधक को मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियां हासिल होती हैं।
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