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आज्ञा चक्र में मन की स्थिति के लिए कात्यायनी पूजन -अशोक ”प्रवृद्ध”

आज्ञा चक्र में मन की स्थिति के लिए कात्यायनी पूजन -अशोक ”प्रवृद्ध”

पौराणिक मान्यतानुसार संसार में दैत्यों, असुरों का अत्याचार बढ़ने पर धर्म, धरा, ऋषि समुदाय सहित देवगण भी उनके निरंतर बढ़ते दुराचारों से आक्रांत होने लगते हैं। ऐसी परिस्थिति में किसी न किसी दैवीय शक्ति की उत्पत्ति असुरों के विनाश व जगत के कल्याण हेतु होती है। ऐसी ही विपरीत स्थिति में भगवती देवी कात्यायनी की उत्पत्ति असुरों के विनाश और संसार के कल्याण हेतु होती है, जिन्होंने वरदान के मद में चूर महिषासुर जैसे महाभयानक दैत्यों को मारकर जगत का कल्याण किया है। यह भगवती नवदुर्गा अर्थात देवी पार्वती (शक्ति) के नौ स्वरूपों में षष्टम स्वरूप है। जगत जननी माता दुर्गा के इस छठे स्वरूप का महर्षि कात्यायन के द्वारा पूजा किये जाने के कारण यह कात्यायनी के रूप में सुप्रसिद्धि प्राप्त है। अमरकोष में पार्वती के लिए दूसरे प्रयुक्त नामों में कात्यायनी भी शामिल है। संस्कृत शब्दकोषों में उमा, कात्यायनी, गौरी, काली, हैमावती, ईश्वरी (इस्वरी) इन्हीं के अन्य नाम हैं। शक्तिवाद में शक्ति अर्थात दुर्गा के रूप में भी यह सर्वप्रचलित हैं, जिसमें भद्रकाली और चंडिका भी शामिल हैं। यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक में स्पष्ट रूप से नहीं परन्तु वहाँ उल्लिखित मन्त्र में कतिपय विद्वान उनका ही प्रथम झलक मानते हैं और इसे कात्यायनी का प्रथम उल्लेख मानते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार वे परमेश्वर के नैसर्गिक क्रोध से उत्पन्न हुई थी, जिन्होंने देवी पार्वती द्वारा दी गई सिंह पर आरूढ़ होकर महिषासुर का वध किया। वे शक्ति की आदि रूपा है, जिसका उल्लेख द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व रचित पाणिनि कृत पतंजलि के महाभाष्य में किया गया है। उनका वर्णन देवी-भागवत पुराण, और मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्य में किया गया है। बौद्ध और जैन ग्रंथों और कई तांत्रिक ग्रंथों, विशेष रूप से कालिका-पुराण में उनका उल्लेख है, जिसमें उद्यान या उड़ीसा में देवी कात्यायनी और भगवान जगन्नाथ का स्थान बताया गया है। एक पौराणिक कथा के अनुसार द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में प्राप्त करने हेतु व्रज मंडल की गोपियों ने इनकी आराधना की थी। माता ने उन्हें वांछित वर प्रदान किया। इसी कारण वे ब्रज में आज भी दिव्य रूप में प्रतिष्ठत हैं। वामन पुराण के अठारहवें अध्याय में देवी कात्यायनी के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार माता कात्यायनी की चार भुजायें हैं, दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में तथा नीचे का हाथ वरदमुद्रा में है। बांये ऊपर वाले हाथ में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है और इनका वाहन सिंह है। इनके पूजन का समय नवरात्र काल आश्विन अथवा चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी को प्रात: काल का अत्यंत शुभ माना गया है। माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। पारम्परिक रूप से देवी दुर्गा की तरह इन्हें भी लाल रंग से जुड़ी हुई बताया गया है। नवरात्रि उत्सव के षष्ठी में उनकी पूजा किये जाने का विधान है। नवरात्रि के षष्ठम दिवस देवी के कात्यायनी स्वरूप का पूजन किये जाने से भक्त का मन आज्ञाचक्र में स्थित होता है। योगसाधना में आज्ञाचक्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित साधक कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर देता है।

भगवती माता दुर्गा के छठे स्वरूप कात्यायनी के सम्बन्ध में भी कई पौराणिक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार माता कात्यायनी ने भक्त जनों के हितार्थ परम शक्ति के रूप मे उत्पन्न होकर संसार में व्याप्त असुरों के भय को समाप्त किया है। देवताओं के कल्याण हेतु ऋषि कत के पुत्र कात्य अर्थात महर्षि कात्यायन के यहाँ प्रकट होने के कारण इनका नाम कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महर्षि कात्यायन द्वारा इन्हें पुत्री के रूप में स्वीकार करते हुए पूजा अर्चना किये जाने से इनका यह नाम जगत में अमर हो गया। देवी सप्तशती में वर्णित कथा के अनुसार पूर्व काल में जब महिषासुर के अत्याचार से धरा में पाप बढ़ गए और देवताओं का यज्ञ भाग छीना जाने लगा, तो देव समुदाय में यह चर्चा होने लगी कि धरती के पापों का नाश और देवताओं सहित सम्पूर्ण विश्व का कल्याण कैसे होगा? देवताओं ने गहन विचार- विमर्श के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला कि ईश्वरी देवी को प्रकट किया जाए, क्योंकि महिषासुर किसी भी देवताओं से मृत्यु को प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर को देवताओं से ही वरदान प्राप्त हुआ था कि उसे कन्या अर्थात स्त्री के सिवा और कोई न मार सके। देवताओं से प्राप्त इस वरदान के मद में चूर दानवराज महिषासुर नृशंस रूप से क्रूरता पूर्वक चहुंओर अत्याचार करने लगा। जिससे तीनों लोकों में त्राहि- त्राहि मच गई। इस परिस्थिति में महिषासुर के बध के लिए देवताओं ने अपने शरीर के द्वारा परम तेजस्वनी कन्या को उत्पन्न किया, जिसका नाम कात्यायनी पड़ा। तथा देव कार्य को माता ने अपनी अद्वितीय शक्ति के द्वारा सिद्ध करते हुए उस महासुर का संहार दशमी के दिन कर दिया। दूसरी कथा के अनुसार कात्यायन गोत्रीय ऋषि ने भगवती को पुत्री रूप में प्राप्ति की इच्छा से पराम्बा की उपासना करते हुए कठिन तपस्या की। माता ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली, और उनके यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने का वरदान दिया। कुछ समय के पश्चात महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ जाने पर उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने -अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन के द्वारा इन्हें पुत्री मान इनकी पूजा -अर्चना किये जाने से यह देवी कात्यायनी कहलायीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के बाद आश्विन शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ऋषि ने इनकी पूजा की। ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी तिथि को इस देवी ने महिषासुर का वध किया।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार माता कात्यायनी को शहद अतिप्रिय होने के कारण नवरात्रि के छठे दिन माता को शहद का भोग लगाये जाने की परिपाटी है। इस दिन माता को तिलक आदि लगाकर शहद का भोग लगाया जाता है। माता कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य, दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है। देवी कात्यायनी अमोध फलदायिनी हैं। इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है। कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं। इनका गुण शोध कार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायिनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे हो जाते हैं। माता भगवती का दाम्पत्य दीर्घसुख प्राप्ति मंत्र जाप इस प्रकार है-

एतत्ते वदनं सौम्यम् लोचनत्रय भूषितम्।

पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायिनी नमोस्तुते।।

ध्यातव्य है कि कात्यायनी माता के संदर्भं में शाक्त ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर मन्त्र, ध्यान, कवच , महिमा गान से सम्बन्धित श्लोक भरे पड़े हैं। माँ की पूजा हेतु भी मन्त्रों की एक बड़ी श्रृंखला होने के कारण जरूरत के अनुसार मन्त्र जाप व उच्चारण किया जाता है। माँ भक्त जनों को सुख शांति, ऐश्वर्य, सौभाग्य देने वाली हैं। माँ कात्यायनी के आराधना के लिए निम्न मन्त्र उत्तम माना गया है-

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।। कात्यायनी माता के महात्म्य को दुर्गा सप्तशती में कई स्थानों पर वर्णित किया गया है। श्रद्धालु भक्त जनों को वांछित फल प्रदान करने वाली माता कात्यायनी की पूजा- अर्चना से जीवन में सुख-शांति, सौभाग्य, आरोग्यता की प्राप्ति होती है। लोक मान्यता है कि कात्यायनी शारीरिक बल को बढ़ाने की अद्भूत शक्ति प्रदान करती हैं । राक्षस समूहों का विनाश करने व शत्रुओं के दमन की अद्भुत शक्ति रखने वाली देवी कात्यायनी वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने का परम आशीर्वाद अपने भक्तों को देती है। इनकी पूजा करने से व्यक्ति को सद्गृहस्थ में शामिल होने की क्षमता प्राप्त होती है और उसे स्त्री पुत्र, पौत्र की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही धन, ऐश्वर्य, गरिमा, बैभव भी मिलता है। अपने भक्तों पर समान रूप से अपार कृपा बरसाने वाली माता कात्यायनी का सौभाग्याकांक्षी कन्याओं के द्वारा विशेष रूप से किये जाने की परम्परा है। कहा जाता है कि सौभाग्याकांक्षी कन्याओं द्वारा नवरात्रि के षष्टम दिन माता कात्यायनी की पूजा - अर्चना विशेष रूप से फल दायी होती है। इसलिए इस तिथि को कुंवारी कन्याओं के द्वारा अनुकूल जीवन साथी की प्राप्ति हेतु माता की पूजा अर्चना का बड़ा ही महात्म्य है। यही कारण है कि श्रद्धालु भक्त वैदिक रीति द्वारा अनुष्ठान करते हुए माँ कात्यायनी की आराधना -उपासना कर मनोवांछित कामना पूर्ति की प्रार्थना करते हैं।
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