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कृष्ण ने दी अर्जुन को कर्मयोग की आज्ञा

कृष्ण ने दी अर्जुन को कर्मयोग की आज्ञा

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘समत्व ही योग कहलाता है’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने ‘योग’ पद का पारिभाषिक अर्थ बतलाया है। अभिप्राय यह है कि यहाँ योग समता का नाम है और किसी भी साधन के द्वारा समत्व को प्राप्त कर लेना ही योगी बनना है। अतएव तुमको कर्मयोगी बनने के लिये समभाव में स्थित होकर कर्म करना चाहिये।

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। 49।।

प्रश्न-‘बुद्धियोगात्’ पद यहाँ किस योग का वाचक है? कर्मयोग का या ज्ञानयोग का?

उत्तर-जिसमें ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करके समबुद्धि पूर्वक कर्तव्य-कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, उस कर्मयोग का वाचक यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद है। क्योंकि उन्चालीसवें श्लोक में ‘योगे सुनो, यह कहकर भगवान् ने कर्मयोग का वर्णन आरम्भ किया है, इस कारण यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद का अर्थ ‘ज्ञानयोग’ मानने की गुंजाइश नहीं है। इसके सिवा इस श्लोक में फल चाहने वालों को कृपण बतलाया गया है और अगले श्लोक में बुद्धि युक्त पुरुश की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग के लिये आज्ञा दी गयी है और यह कहा गया है कि बुद्धियुक्त मनुष्य कर्म फल का त्याग करके ‘अनामय पद’ को प्राप्त हो जाता है। इस कारण भी यहाँ ‘बुद्धियोगात्’ पद का प्रकरण विरुद्ध ‘ज्ञानयोग’ अर्थ नहीं बन सकता।

क्योंकि ज्ञानयोगी के लिये यह कहना नहीं बनता कि वह कर्म फल का त्याग करके अनामय पद को प्राप्त होता है; वह तो अपने को कर्म का कर्ता ही नहीं समझता, फिर उसके लिये फल त्याग की बात ही कहाँ रह जाती है?

प्रश्न-बुद्धियोग की अपेक्षा सकाम कर्म को अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का बतलाने का क्या भाव है तथा यहाँ ‘कर्म’ पद का अर्थ निषिद्ध कर्म मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है

उत्तर-सकाम कर्मों को बुद्धियोग की अपेक्षा अत्यन्त नीचा बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सकाम कर्मों का फल नाशवान् क्षणिक सुख की प्राप्ति है और कर्मयोग का फल परमात्मा की प्राप्ति है। अतः दोनों में दिन और रात की भाँति महान् दुःखों की प्राप्ति है। इसलिये उनकी तुलना बुद्धियोग का महत्त्व दिखलाने के लिये नहीं की जा सकती।

प्रश्न-‘बुद्धौ’ पद किसका वाचक है और अर्जुन को उसका आश्रय लेने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-जिस समबुद्धि का प्रकरण चल रहा है, उसी का वाचक यहाँ ‘बुद्धौ’ पद है; उसका आश्रय लेने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते और हरेक कर्म करते समय तुम निरन्तर समभाव में स्थित रहने की चेष्टा करते रहो, यही कल्याण प्राप्ति का सुगम उपाय है।

प्रश्न-कर्म फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि जो मनुष्य कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना करके कर्मफल प्राप्ति के कारण बन जाते हैं, वे दीन हैं अर्थात् दया के पात्र हैं; इसलिये तुमको वैसा नहीं बनना चाहिये।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। 50।।

प्रश्न-‘समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जन्म-जन्मान्तर में और इस जन्म में किये हुए जितने भी पुण्य-कर्म और पाप कर्म संस्कार रूप से अन्तःकरण में संचित रहते हैं, उन समस्त कर्मों को समबुद्धि से युक्त कर्मयोगी इसी लोक में त्याग देता है’-अर्थात् इस वर्तमान जन्म में ही वह उन समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। उसका उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, इसलिये उसके कर्म पुनर्जन्म रूप फल नहीं दे सकते। क्योंकि निःस्वार्थ भाव से केवल लोकहितार्थ किये हुए कर्मो से उसके समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं। इसी प्रकार उसके क्रियमाण पुण्य तथा पाप कर्म का भी त्याग हो जाता है; क्योंकि पापकर्म तो उसके द्वारा स्वरूप से ही छूट जाते हैं और शास्त्र विहित पुण्य कर्मों में फलासक्ति का त्याग होने से वे कर्म ‘अकर्म’ बन जाते हैं। अतएव उनका भी एक प्रकार से त्याग ही हो गया।

प्रश्न-इससे तू समत्वरूप योग में लग जा, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि समबुद्धि से युक्त हुआ योगी जीवनमुक्त हो जाता है, इसलिये तुम्हें भी वैसा ही बनना चाहिये।

प्रश्न-यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि कर्म स्वाभाविक ही मनुष्य को बन्धन में डालने वाले होते हैं और बिना कर्म किए कोई मनुष्य रह नहीं सकता, कुछ न कुछ उसे करना पड़ता है; ऐसी परिस्थिति में कर्मों से छूटने की सबसे अच्छी युक्ति समत्वयोग है। इस समबुद्धि से युक्त होकर कर्म करने वाला मनुष्य इसके प्रभाव से उनके बन्धन में नहीं आता। इसलिए कर्मों में ‘योग’ ही कुशलता है। साधन काल में समबुद्धि से कर्म करने की चेष्टा की जाती है और सिद्धावस्था में समत्व में पूर्ण स्थिति होती है।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।। 51।।

प्रश्न-‘हि’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-‘हि’ पद हेतु वाचक है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि समबुद्धि पूर्वक कर्मों का करना किस कारण से कुशलता है, वह बात इस श्लोक में बतलायी जाती है।

प्रश्न-‘बुद्धियुक्ताः‘ पद किनका वाचक है और उनको ‘मनीषिणः‘ कहने का क्या भाव है? उत्तर-जो पूर्वोक्त समबुद्धि से युक्त हैं अर्थात् जिनमें समभाव की अटल स्थिति हो गयी है, ऐसे कर्मयोगियों का वाचक यहाँ ‘बुद्धियुक्ताः‘ पद है। उनको ‘मनीषिणः‘ कहकर यह भाव दिखलाय गया है कि जो इस प्रकार समभाव से युक्त होकर अपने मनुष्य-जन्म को सफल कर लेते हैं, वे ही वास्तव में बुद्धिमान् और ज्ञानी हैं; जो साक्षात् मुक्ति के द्वार पर इस मनुष्य शरीर को पाकर भी भोगों में फँसे रहते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।
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