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मैं दीया हूँ,

मैं दीया हूँ, रात भर टिमटिमाता रहा हूँ,

तेल औ’ बाती जला, तम मिटाता रहा हूँ।

जानता हूँ कुछ पल में, मिट जाऊँगा मैं,
जितना भी जिया, काम आता रहा हूँ।

आँधियों ने हरदम चाहा मुझको बुझाना,
मानवता हित, तूफां से टकराता रहा हूँ।

बुझ गया गर नियति में मेरी लिखा हो,
फिर जहां रोशन करूंगा, बताता रहा हूँ।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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