कर्म योग व ज्ञान योग में भेद
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-सांख्य योगियों की निष्ठा ज्ञान योग से और योगियों की कर्मयोग से होती है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि उन दोनों प्रकार की निष्ठाओं में से जो सांख्य योगियों की निष्ठा है, वह तो ज्ञान योग का साधन करते-करते देहाभिमान का सर्वथा नाश होने पर सिद्ध होती है और जो कर्मयोगियों की निष्ठा है, वह कर्मयोग का साधन करते-करते कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का अभाव होकर सिद्धि-असिद्धि में समत्व होने पर होती है। उपर्युक्त इन दोनों निष्ठाओं के अधिकारी पूर्व संस्कार श्रद्धा और रुचि के अनुसार, अलग-अलग होते हैं और ये दोनों निष्ठाएँ स्वतंत्र हैं।
प्रश्न-यदि कोई मनुष्य ज्ञान योग और कर्मयोग दोनों का एक साथ सम्पादन करे, तो उसकी कौन-सी निष्ठा होती है?
उत्तर-ये दोंनों साधन परस्पर भिन्न हैं, अतः एक ही मनुष्य एक काल में दोनों का साधन नहीं कर सकता’ क्योंकि सांख्य योग के साधन में आत्मा और परमात्मा में अभेद समझकर परमात्मा के निर्गुण-निराकार सच्चिदानंद घन का रूप चिन्तन किया जाता है और कर्मयोग में फलासक्ति के त्याग पूर्वक कर्म करते हुए भगवान् को सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान् और सर्वेश्वर समझकर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का उपास्य-उपासक भाव से चिन्तन किया जाता है। इसलिये दोनों का अनुष्ठान एक साथ एक काल में एक ही मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।। 4।ं।
प्रश्न-यहाँ ‘‘नैष्कम्र्यम्’ पद किसका वाचक है और मनुष्य कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-कर्मयोग की जो परिपक्व स्थिति है-जिसका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में योगनिष्ठा के नाम से किया गया है, उसी का वाचक यहाँ, नैष्कम्र्यम्’ पद है। इस स्थिति को प्राप्त पुरुष समस्त कर्म करते हुए भी उनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है, उसके कर्म बन्धन के हेतु नहीं होते। इस कारण उस स्थिति को ‘नैष्कम्र्य’ अर्थात् ‘निष्कर्मता’ कहते हैं। यह स्थिति मनुष्य को निष्काम भाव से कर्तव्य कर्मों का आचरण करने से ही मिलती है, बिना कर्म किये नहीं मिल सकती। इसलिये कर्म बन्धन से मुक्त होने का उपाय कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देना नहीं है, बल्कि उनको निष्काम भाव से करते रहना ही है। यही भाव दिखलाने के लिये कहा गया है कि मनुष्य कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को नहीं प्राप्त होता।’
प्रश्न-कर्म योग का स्वरूप तो कर्म करना ही है, उसमें कर्मों का आरम्भ न करने की शंका नहीं होती, फिर कर्मों का आरम्भ किये बिना ‘िनष्कर्मता’ नहीं मिलती, यह कहने की क्या आवश्यकता थी?
उत्तर-भगवान अर्जुन को कर्मों में फल और आसक्ति का त्याग करने के लिये कहते हैं और उसका फल कर्म बन्धन से मुक्त हो जाना बतलाते हैं। इस कारण वह यह समझ सकता है कि यदि मैं कर्म न करूँ तो अपने आप ही उनके बन्धन से मुक्त हो जाऊँगा, फिर कर्म करने की जरूरत ही क्या है। इस भ्रम की निवृत्ति के लिये पहले कर्म योग का प्रकरण आरम्भ करते समय ही भगवान् ने कहा है कि ‘मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि’ अर्थात् तेरी कर्म न करने में आसक्ति नहीं होनी चाहिये तथा छठे अध्याय में भी कहा है कि ‘आरुरुक्षु मुनि के लिये कर्म करना ही योगारूढ़ होने का उपाय है। इसलिये शारीरिक परिश्रम के भय से या अन्य किसी प्रकार की आसक्ति से मनुष्य में जो अप्रवृत्ति का दोष आ जाता है, उसे कर्मयोग में वाधक बतलाने के लिये ही भगवान् ने ऐसा कहा है।
प्रश्न-यहाँ ‘सिद्धिम्’ पद किसका वाचक है और कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जो ज्ञान योग की सिद्धि यानी परिपक्व स्थिति है, जिसका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में ‘ज्ञाननिष्ठा’ के नाम से किया गया है तथा जिसका फल तत्त्वज्ञान की प्राप्ति है, उसका वाचक यहाँ ‘सिद्धिम्’ पद है। इस स्थिति पर पहुँचकर साधक ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है, उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का किंचित मात्र भी भेद नहीं रहता, वह स्वयं ब्रह्म रूप हो जाता है; इसलिये इस स्थिति को ‘सिद्धि’ कहते हैं। यह ज्ञान योगरूप सिद्धि अपने वर्णाश्रम के अनुसार करने योग्य कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्याग कर तथा समस्त भोगों में ममता, आसक्ति और कामना से रहित होकर निरन्तर अभिन्न भाव से परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से ही सिद्ध होती है, कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने मात्र से नहीं मिलती; क्योंकि अहंता, ममता और आसक्ति का नाश हुए बिना मनुष्य की अभिन्नता से परमात्मा में स्थिर स्थिति नहीं हो सकती। बल्कि मन, बुद्धि और शरीर द्वारा होने वाली किसी भी क्रिया का अपने को कर्ता न समझकर उनका द्रष्टा-साक्षी रहने से उपर्युक्त स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसलिये सांख्य योगी को भी वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की चेष्टा न करके उनमें कर्तापन, ममता, आसक्ति और कामना से रहित हा जाना चाहिये-यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि ‘केवल कर्मों के त्याग मात्र से सिद्धि प्राप्त नहीं होती।’
प्रश्न-‘अनारम्मात्’ और ‘संन्यसनात्’ इन दोनों पदों का एक ही अभिप्राय है या भिन्न-भिन्न? यदि भिन्न-भिन्न है तो दोनों में क्या भेद है? उत्तर-यहाँ भगवान् ने दोनेां पदों का प्रयोग भिन्न-भिन्न अभिप्राय से किया है। क्योंकि ‘अनारम्मात्’ पद से तो कर्म योगी के लिये विहित कर्मों के न करने को योग निष्ठा की प्राप्ति में बाधक बतलाया है; किन्तु ‘संन्यसनात्’ पद से सांख्य योगी के लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना सांख्य निष्ठा की प्राप्ति में बाधक नहीं बतलाया गया, केवल यही बात कही गयी है कि उसी से उसे सिद्धि नहीं मिलती, सिद्धि की प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन का त्याग करके सच्चिदानन्द ब्रह्म में अभेद भाव से स्थित होना आवश्यक है। अतएव उसके लिये कर्मों का स्वरूपतः त्याग करना मुख्य बात नहीं है, भीतरी त्याग ही प्रधान है और कर्मयोगी के लिये स्वरूप से कर्मों का त्याग न करना विधेय है-यही दोनों पदों के भावों में भेद है।
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