शिक्षा की गरिमा शिक्षकों के चरित्र और अनुशासन पर आश्रित।
~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
( राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, संज्ञा समिति)
आज शिक्षक दिवस के अवसर पर स्थानीय दिव्य शिक्षा निकेतन के प्रांगण में, डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश" ने शिक्षा की गरिमा शिक्षकों के चरित्र और अनुशासन पर आश्रित। विषय पर बच्चों को संबोधित किया।
विद्यार्थी जीवन - मानव जीवन में जीवन काल का बड़ा ही महत्वपूर्ण अंश होता है।
हम अध्यापकों के साथ रहकर कुछ समय विद्यालयों में गुजारते हैं । गुरूजी के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव रहता है ।
अध्यापक अपनी अथक प्रयास से छात्रों के भावी जीवन को सर्वगुण संपन्न बना सकने में अभूतपूर्व भूमिका निभाते रहे हैं, उनके इन उपकारों को कोई भुला नहीं सकता ?
पर आज पस्थिति कुछ बदल सी गई है
अध्यापक का व्यक्तित्व और कर्तृत्व अच्छा भी है तो छात्रों पर उनका छाप नहीं पड़ती ।अध्यापक अनुशासन और सहज स्वाभाव के लिए जाने जाते थे, किन्तु अब शायद ही कुछ अध्यापक बचे हैं। पहले जहाँ उनके कक्षा में प्रवेश करते ही स्तब्धता छा जाती थी, जो बच्चे घर में उद्दंडता बरतते थे, वे भी स्कूल के अनुशासन में सीधे हो जाते थे । कोई जरूरी नहीं कि बच्चों के उदंडता के लिए हमेशा दंड देने की आवश्यकता होती थी। सही शिक्षा के साथ साथ अनुशासित वातावरण बनाए रखना अध्यापक अपना कर्तव्य समझते थे।
किन्तु आज अध्यापक न के बराबर शेष है। ज्यादातर 'माहटर' ही भरे पड़े है। शिक्षा व्यापार बन गया है। शिक्षकों का निजी जीवन, चरित्र और व्यवहार का तरीका बदल चुका है। तंबाकू, सिगरेट, पान, गुटखा शिक्षकों की शालीनता में चार चाँद लगा चुका है। व्यसन और ऐश मौज की जिन्दगी जीना शिक्षकों में प्रचलन सा हो गया है।
पहले जहाँ बच्चे शिक्षकों को कक्षा में प्रवेश करते ही शांति छा जाती थी, वहीं अब शिक्षकों के सामने छात्र कक्षा में अनेक प्रकार के कुकृत्य करते हैं, शिक्षक मूक दर्शक बना नजारा देखता रहता है।
जब शिक्षक ही अनुशासित नहीं हैं तो छात्र कैसे अनुशासित रह सकते हैं। छात्र, शिक्षकों से ही तो प्रेरणा ग्रहण कर रहा है! माना कि समय की चाल उलटी है और उच्छ्रंखलता के माहौल ने शिक्षार्थियों में भी उद्दंडता भर दी है । पर इतने पर भी निराशा जैसी कोई बात नहीं है। अगर प्रशासक चाहे तो अनगढ़ पशुओं को सर्कस वाले जिस तरह से चतुराई के साथ वश में कर लेते हैं और उन्हें आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाने योग्य बना लेते हैं । फिर कोई कारण नहीं कि शिक्षक अध्यापक बन कर चाहे तो पुनः "गुरु गरिमा सही स्थिति में हो जाय। स्कूली पाठ्यक्रम में निष्णात और व्यक्तित्व की दृष्टि से समुन्नत, सुसंस्कृत चरित्र लाकर छात्रों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाया जा सके।
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