शब्द
मैंने बोयाएक बीज "शब्द" का
मरुस्थल में।
वहां लहलहाई
शब्दों की खेती।
फिर बहने लगी
एक नदी शब्दों की
कविता बनकर
उस मरुस्थल में।
एक दिन
कुछ और नदियाँ
शब्दों की
आकर मिली
उसी मरुस्थल में
और
बन गया एक सागर
शब्दों का
मरुस्थल में।
अब
मरुस्थल
मरुस्थल नहीं रहा
अपितु
बन गया है
साहित्य सागर
जहाँ तैरती हैं नौकाएं
मानवता का सन्देश देती,
शिक्षा का प्रसार करती
और उससे भी अधिक
आदमी को
इंसान बनाती हुई।
शब्द बीज
बहुत शक्तिशाली है
आओ
हम सब मिलकर लगायें
एक-एक शब्द बीज
रेगिस्तान में,
दलदली व बंजर भूमि में,
पर्वत-पहाड़ों पर
जंगलों में
और हर खेत खलिहान में।
ताकि पैदा हो सकें
अनेक शब्द
जिससे भरपूर रहें
हमारे बुद्धि के गोदाम
तथा मिटा सकें भूख
अपने अहंकार की
झूठे स्वार्थ की
जातीय घृणा की
सत्ता लौलुपता की
तथा
निरंकुश आतंकवाद की।
शायद
शायद तब ही मनुष्य
इन्सान बन पायेगा
जब
शब्दों की
सार्थक एवं पौष्टिक खुराक से
उसका पेट भर जायेगा।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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