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अन्न का व्यापक अर्थ

अन्न का व्यापक अर्थ

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-जो अपने शरीर पोषण के लिये ही पकाते-खाते हैं, उन्हें पापी और उनके भोजन को पाप क्यों बतलाया गया?

उत्तर-यहाँ पकाने-खाने के उपलक्ष्य से इन्द्रियों के द्वारा भोगे जाने वाले समस्त भोगों की बात कही गयी है। जो पुरुष इन भोगों का उपार्जन और इनका यज्ञावशिष्ट उपभोग निष्काम भाव से केवल लोक सेवा के लिये करता है, वह तो उपर्युक्त प्रकार से पापों से छूट जाता है और जो केवल सकाम भाव से सबका न्यायोचित भाग देकर उपार्जित भोगांे का उपभोग करता है, वह भी पापी नहीं है। परन्तु जो पुरुष केवल अपने ही सुख के लिये अपने ही शरीर और इन्द्रियों के पोषण के लिये भोगों का उपार्जन करता है और अपने ही लिये उन्हें भोगता है, वह पुरुष पाप से पाप उपार्जन करता है और पाप का ही उपभोग करता है; क्यांेकि न तो उसकी क्रियाएँ यज्ञार्थ होती हैं और न वह अपने उपार्जन में से सबको उनका यथा योग्य भाग ही देता है। इसीलिये उसका उपार्जन और उपभोग दोनों ही पापमय होने के कारण उसे पापी और उसके भोगोें को पाप कहा गया है।

अन्ना˜वन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।

यज्ञा˜वति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमु˜वः ।। 14।ं

कर्म ब्रह्मो˜वं विद्धि ब्रह्माक्षर समु˜वम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। 15।।

प्रश्न-‘अन्न’ शब्द का क्या अर्थ है और समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-यहाँ ‘अन्न’ शब्द व्यापक अर्थ में है। इसलिये इसका अर्थ केवल गेहूँ, चना आदि अनाज मात्र ही नहीं है; किन्तु जिन भिन्न-भिन्न आहार करने योग्य स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर आदि की पुष्टि होती है उन समस्त खाद्य पदार्थों का वाचक यहाँ ‘अन्न’ शब्द है। अतः समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं-इस वाक्य का यह भाव है कि खाद्य पदार्थों से ही समस्त प्राणियों के शरीर में रज और वीर्य आदि बनते हैं, उस रज-वीर्य आदि के संयोग से ही भिन्न-भिन्न प्राणियों की उत्पत्ति, वृद्धि और पोषण का हेतु अन्न ही है। श्रुति में भी कहा है।-‘अन्नाद्वधयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते अन्नेन जातानि जीवन्ति’। अर्थात ये सब प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्न से ही जीते हैं।

प्रश्न-अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि संसार में स्थूल और सूक्ष्म जितने भी खाद्य पदार्थ हैं, उन सबकी उत्पत्ति में जल ही प्रधान कारण है; क्योंकि स्थूल या सूक्ष्म रूप से जल का सम्बन्ध सभी जगह रहता है और जल का आधार वृष्टि ही है।

प्रश्न-वृष्टि यज्ञ से होती है; यह कहने का क्या भाव है?

उत्तर-सृष्टि में जितने भी जीव हैं, उन सबमें मनुष्य ही ऐसा है जिस पर सब जीवों के भरण-पोषण और संरक्षण का दायित्व है। मनुष्य अपने इस दायित्व को समझकर मन, वाणी, शरीर से समस्त जीवों के जीवन

धारणादि रूप हित के लिये क्रियाएँ करता है, उन क्रियाओं से सम्पादित होने वाले सत्कर्म को यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ में हवन, दान, तप और जीविका आदि सभी कर्तव्य कर्मों का समावेश हो जाता है। यज्ञपि इनमें हवन की प्रधानता होने से शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि अग्नि में आहुति देने पर वृष्टि होती है और उस वृष्टि से अन्न की उत्पत्ति के द्वारा प्रजा की उत्पत्ति होती है, किन्तु ‘यज्ञ’ शब्द से यहाँ केवल हवन ही विवक्षित नहीं है। लोकोपकारार्थ होने वाली क्रियाओं से सम्पादित सत्कर्म मात्र का नाम यज्ञ है।

‘वृष्टि यज्ञ से होती है’ इस वाक्य का यह भाव समझना चाहिए कि मनुष्यों के द्वारा किये हुए कर्तव्य-पालन रूप यज्ञ से ही वृष्टि होती है। हम कह सकते हैं कि अमुक देश में यज्ञ नहीं होते, वहाँ वर्षा क्यों होती है। इसका उत्तर यह है कि वहाँ भी किसी-न-किसी रूप में लोकोपकारार्थ सत्कर्म होते ही हैं। इसके अतिरिक्त एक बात और भी है कि सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ होते रहे हैं। उन यज्ञों के फलस्वरूप वहाँ वृष्टि होती है और जब तक पूर्वार्जित यज्ञ समूह संचित रहेगा-उसकी समाप्ति नहीं होगी, तब तक वृष्टि होती रहेगी; परन्तु मनुष्य यदि यज्ञ करना बंद कर देगा तो यह संचय धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा और उसके बाद वृष्टि नही होगी, जिसके फलस्वरूप सृष्टि के जीवों का शरीर धारण और भरण-पोषण कठिन हो जायगा, इसलिये कर्तव्य पालन रूप यज्ञ मनुष्य को अवश्य करना चाहिये।

प्रश्न-यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होता है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि भिन्न-भिन्न मनुष्यों के लिये उनके वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के भेद से जो नाना प्रकार के यज्ञ शास्त्र में बतलाये गये हैं, वे सब मन, इन्द्रिय या शरीर की क्रिया द्वारा ही सम्पादित होते हैं। बिना शास्त्र विहित क्रिया से किसी भी यज्ञ की सिद्धि नहीं होती। चैथे अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में इसी भाव को स्पष्ट किया गया है।

प्रश्न-‘ब्रह्मो˜वम्’ पद में ‘ब्रह्म’ शब्द का क्या अर्थ है और कर्म को उससे उत्पन्न होने वाला बतलाने का क्या भाव है? उत्तर-गीता में ‘ब्रह्म’ शब्द का प्रयोग प्रकरणानुसार ‘परमात्मा’, ‘ब्रह्मा’ ‘वेद; और ‘ब्राह्मण’ इन सबके अर्थ में हुआ है। यहाँ कर्मों की उत्पत्ति का प्रकरण है और विहित कर्माें का ज्ञान मनुष्य को वेद या वेदानुकूल शास्त्रों से ही होता है। इसलिये यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ वेद समझना चाहिये। इसके सिवा इस ब्रह्म को अक्षर से उत्पन्न बतलाया गया है, इसलिये भी ब्रह्म का अर्थ वेद मानना ही ठीक है; क्योंकि परमात्मा तो स्वयं अक्षर है और प्रकृति अनादि है, अतः उनको अक्षर से उत्पन्न कहना नहीं बनता और ब्रह्मा तथा ब्राह्मण का यहाँ प्रकरण नहीं है। कर्मों को वेद से उत्पन्न बतलाकर यहाँ यह भाव दिखलाया है कि किस मनुष्य के लिये कौन-सा कर्म किस प्रकार करना कर्तव्य है-यह बात वेद और शास्त्रों द्वारा समझकर जो विधिवत् क्रियाएँ की जाती हैं, उन्हीं से यज्ञ सम्पादित होता है और ऐसी क्रियाएँ वेद से या वेदानुकूल शास्त्रों से ही जानी जाती हैं। अतः यज्ञ सम्पादन करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये।
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