संजय गीता
गीता अस्थिर मति से प्रारंभ होती है। हस्तिनापुर के राजभवन में बैठे धृतराष्ट्र की मति युद्ध की विभीषिका के कल्पना मात्र से अस्थिर हो जाती है।वह अपने पास बैठे संजय से प्रश्न करता है।वह प्रश्न भी अस्थिर है।एक ओर धर्मक्षेत्र है। दूसरी ओर कुरूक्षेत्र है।एक ओर 'मामका:' है दूसरी ओर 'पाडवाश्चैव' है।तब 'किं कुर्वतु:' आया है।
गीता में दोनों तरफ दो तरह के लोग।पहली तरफ हैं महाराज धृतराष्ट्र और संजय।दूसरी तरफ हैं अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण और संजय की मति स्थिर है जबकि धृतराष्ट्र और अर्जुन दोनों की मति अस्थिर है।कौरव और पांडव अपनी अपनी सेना लेकर कुरूक्षेत्र के मैदान में डटे हैं। दोनों को बस 'मामका:' की चिंता है।अकेला संजय धर्मक्षेत्र में खड़ा हैं। श्रीकृष्ण तो एक हीं साथ दोनों क्षेत्र में खड़े हैं।बात चाहे धर्मक्षेत्र की हो या कुरूक्षेत्र की।संजय की मति स्थिर है कारण की वह सिर्फ धर्मक्षेत्र में अवस्थित है। लेकिन श्रीकृष्ण की मति धर्म-कर्म के पचड़े में पड़कर भी स्थिर चित्त है। संजय नीरा नर है।वह एक हीं क्षेत्र को जानता है।नर की गति मति का वह निरूपण करता है।पर श्रीकृष्ण तो स्वयं नारायण हैं।वे धर्मक्षेत्र से लेकर कर्मक्षेत्र तक एक तटस्थ भाव से खड़े हैं। फिर भी स्थिर चित्त है।ऐसा नारायण को हीं शोभिता है।नर की जो लीला है वह सब नारायण को ज्ञात है पर नारायण की लीला तो अविज्ञात है।जब नर और नारायण की मति गति स्थिरता को प्राप्त कर लेती है तभी एकात्म भाव से वह कहता है 'मतिर्मम्।'
ये मतिर्मम की शास्वत उद्घोषणा संजय की है।गीता का प्रारंभ महाराज धृतराष्ट्र के प्रश्न से होता है और समाप्ति संजय की सम्मति से।बाकि तो भगवान की लीलाओं का गान है। धृतराष्ट्र के प्रश्न सुनकर संजय अपने दिव्य दृष्टि से देख जानकर बताते रहता है। जबकि अर्जुन का प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण समझाते और दिखाते रहते हैं।संजय सिर्फ द्रष्टा है जबकि श्रीकृष्ण स्वयं हीं स्रष्टा,द्रष्टा और नष्टा हैं।
और स्थिर मति पर समाप्त होती है।वास्तव में गीताजी में कर्म मार्ग को धर्म मार्ग के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है।गीता के प्रारंभ में 'ध' की धमक है।मध्य में 'र' की रमणियता है जबकि अंत में 'म' की महता है। धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश हीं वास्तविक कर्म है। इसको छोड़कर जो भी किया जाता है वह सब धर्म से इतर है। भगवान ने तो स्पष्ट उद्घोषणा की है कि सबसे पहले सज्जनों का संरक्षण और दुष्ट जनों का संहार करता हूं तत्पश्चात धर्म की स्थापना करता हूं।कुरूक्षेत्र में पहुंच कर अर्जुन को विषाद होता है।जब भगवान की अहैतुकी कृपा का प्रसाद मिलता है तब वह युद्ध क्षेत्र को धर्मक्षेत्र स्वीकार करता है।उसे बार बार स्मरण आता है 'संभवामि युगे युगे।
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