न तज इक पल
मार्कण्डेय शारदेय
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
मुसीबत सुन पिघल जाती, पिलाती प्रेमरस निर्मल।
जगत् में जो, जहाँ कुछ है, सभी तेरी सजावट हैं।
अचर भी हैं, सचर भी हैं, सभी तेरी बनावट हैं।
शरण हम छोड़कर तेरी भला जाएँ कहाँ निर्बल?
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
समाहित हैं सभी नदियाँ, समाहित हैं सभी सागर।
बता, प्यासा कहाँ जाए, बिना जल के लिये गागर?
न माँ से बढ़ कहीं ममता मिला करती कभी निश्छल।
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
पुरुष में हो अमित पौरुष, लड़े दुख-दैत्य से हर दिन।
बनी जननी, स्वसा, भार्या, सुता के रूप में अनगिन।
पिलाती प्यार की घूँटी कई रस-स्वाद की अविरल।
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
सुरों पर जब कभी संकट पड़ा ध्याया तुझे हरदम।
मिटाया दुःख दुर्गा बन, भरे उनमें बहुत दमखम।
हमें भी शक्ति दे दे कुछ, बनें असहाय जन के बल।
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
महाविद्ये! महामेधे! महाशक्ते! कृपा करना।
बहुत धन, शक्ति, विद्या दे, सुमति को मत कभी हरना।
बनें हम सृष्टि-संरक्षक सदा कर्तव्य-पथ पर चल।
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।
सभी तो अंश तेरे हैं, भले हम भूल बैठे हों।
स्वयं को श्रेष्ठ बतलाएँ, स्वयं में फूल ऐंठे हो।
नलायक मान, गुस्सा कर, तमाचे जड़, न तज इक पल।
महामाये! जगन्मातः! हृदय तेरा बड़ा कोमल।(वाग्मिनी, पृष्ठ-26 से)
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