अर्जुन को बताया ज्ञानी का कत्र्तव्य
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जिस समय कर्तव्य भ्रष्ट हो जाने से लोगों में सब प्रकार की संकरता फैल जाती है, उस समय मनुष्य भोग-परायण और स्वार्थान्ध होकर भिन्न-भिन्न साधनों से एक-दूसरे का नाश करने लग जाते हैं, अपने अत्यंत क्षुद्र और क्षणिक सुखोपभोग के लिये दूसरों का नाश कर डालने में जरा भी नहीं हिचकते। इस प्रकार अत्याचार बढ़ जाने पर उसी के साथ-साथ नयी-नयी दैवी विपत्तियाँ भी आने लगती हैं-जिनके कारण सभी प्राणियों के लिये आवश्यक खान-पान और जीवनधारण की सुविधाएं प्रायः नष्ट हो जाती हैं; चारों ओर महामारी, अनावृष्टि, जल-प्रलय, अकाल, अग्निकोप, भूकम्प और उल्कापात आदि उत्पात होने लगते हैं। इससे समस्त प्रजा का विनाश हो जाता है। अतः भगवान् ने मैं समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ इस वाक्स से यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दूँ तो मुझे उपर्युक्त प्रकार से लोगों को उच्छृंखल बनाकर समस्त प्रजा का नाश करने में निमित्त बनना पड़े।
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्विांस्तथासक्तश्चिकीर्षुलोंक संग्रहम्।। 25।।
प्रश्न-यहाँ ‘कर्मणि’ पद किन कर्मों का वाचक है।
उत्तर-अपने-अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का वाचक यहाँ ‘कर्मणि’ पद है; क्योंकि भगवान् अज्ञानियों को उन कर्मों मंे लगाये रखने का आदेश देते हैं एवं ज्ञानी को भी उन्हीं की भाँति कर्म करने के लिये प्रेरणा करते हैं, अतएव इनमें निषिद्ध कर्म या व्यर्थ कर्म सम्मिलित नहीं हैं।
प्रश्न-‘कर्मणि सक्ताः‘ विशेषण सहित ‘अविद्वांसः‘ पद यहाँ किस श्रेणी के अज्ञानियों का वाचक है?
उत्तर-उपर्युक्त विशेषण के सहित ‘अविद्वांस’ पद यहाँ शास्त्रों में, शास्त्र विहित कर्मों में और उनके फल में श्रद्धा, प्रेम और आसक्ति रखने वाले तथा शास्त्र विहित कर्मों का विधि पूर्वक अपने-अपने अधिकार के अनुसार अनुष्ठान करने वाले सकाम कर्मठ मनुष्यों का वाचक है। इनमें कर्म विषयक आसक्ति रहने के कारण ये न तो कल्याण के साधक शुद्ध सात्विक कर्मयोगी पुरुषों की श्रेणी में आ सकते हैं और न श्रद्धापूर्वक शास्त्र विहित कर्मों का आचरण करने वाले होने के कारण आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति वाले पापाचारी तामसी ही माने जा सकते हैं। अतएव इन लोगों को उन सत्त्वगुण मिश्रित राजस स्वभाव वाले मनुष्यों की श्रेणी में ही समझना चाहिये, जिनका वर्णन दूसरे अध्याय में बियालीसवें से चैवालीसवें श्लोक तक ‘अविपश्चिमः’ पद से, सातवें अध्याय में बीसवें से तेईसवें श्लोक तक ‘अल्पमेधसाम्’ पद से और नवें अध्याय में बीस, इक्कीस, तेईस और चैबीसवें श्लोकों में ‘अन्य देवता भक्ताः’ पद से किया गया है।
प्रश्न-यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’-इन दोनों पदों का प्रयोग करके भगवान् ने क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-स्वाभाविक स्नेह, आसक्ति और भविष्य में उससे सुख मिलने की आशा होने के कारण माता अपने पुत्र का जिस प्रकार सच्ची हार्दिक लगन, उत्साह और तत्परता के साथ लालन-पालन करती है, उस प्रकार दूसरा कोई नहीं कर सकता; इसी तरह जिस मनुष्य की कर्मों में और उनसे प्राप्त होने वाले भोगों में स्वाभाविक आसक्ति होती है और उनका विधान करने वाले शास्त्रों में जिसका विश्वास होता है, वह जिस प्रकार सच्ची लगने से श्रद्धा और विधिपूर्वक शास्त्र विहित कर्मों को सांगोपांग करता है, उस प्रकार जिनकी शास्त्रों में श्रद्धा और शास्त्र विहित कर्मों मंे प्रवृत्ति नहीं है, वे मनुष्य नहीं कर सकते। अतएव यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ का प्रयोग करके भगवान यह भाव दिखलाते हैं कि अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा अभाव होने पर भी ज्ञानी महात्माओं को केवल लोक संग्रह के लिये कर्मासक्त मनुष्यों की भाँति ही शास्त्र विहित कर्मों का विधि पूर्वक सांगोपांग अनुष्ठान करना चाहिये।
प्रश्न-यहाँ ‘विद्वान’ का अर्थ तत्त्वज्ञानी न मानकर शास्त्र ज्ञानी मान लिया जाय तो क्या हानि है?
उत्तर-‘विद्वान’ के साथ ‘असक्तः‘ विशेषण का प्रयोग है, इस कारण इसका अर्थ केवल शास्त्र ज्ञानी ही नहीं माना जा सकता; क्योंकि शास्त्र ज्ञान मात्र से कोई मनुष्य आसक्ति रहित नहीं हो जाता।
प्रश्न-‘लोक संग्रहं चिकीर्षुः’ पद से यह सिद्ध होता है कि ज्ञानी में भी इच्छा रहती है; क्या यह बात ठीक है?
उत्तर-हाँ, रहती है; परन्तु यह अत्यन्त ही विलक्षण होती है। सर्वथा इच्छा रहित पुरुष में होने वाली इच्छा को ही कहा जा सकता है कि उसकी यह इच्छा साधारण मनुष्यों को कर्म तत्पर बनाये रखने के लिये कहने मात्र की ही होती है। ऐसी इच्छा तो भगवान् में भी रहती है। वास्तव में यह इच्छा इच्छा ही नहीं है, अतएव यहाँ ‘लोकसंग्रह’ चिकीर्षुः’ से यह भाव समझना चाहिये कि कहीं उसकी देखा-देखी दूसरे लोग अपने कर्तव्य कर्मों का त्याग करके नष्ट-भ्रष्ट न हो जायँ, इस दृष्टि से ज्ञानी के द्वारा केवल लोकहितार्थ उचित चेष्ठा होती है; सिद्धान्ततः इसके अतिरिक्त उसके कर्मों का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं रहता।
न बुद्धि भेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। 26।।
प्रश्न-‘युक्तः’ विशेषण के सहित ‘विद्वान’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में वर्णित परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित आसक्ति रहित तत्त्वज्ञानी का वाचक यहाँ ‘युक्तः‘ विशेषण के सहित ‘विद्वान्’ पद है।
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