ज्ञानियों के स्वभाव होते भिन्न-भिन्न
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘अचेतसः’ पद किस श्रेणी के मनुष्यों का वाचक है और उनको सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित तथा नष्ट हुए समझने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर-जिनके मन दोषों से भरे हैं, जिनमें विवेक का अभाव है और जिनका चित्त वश में नहीं है, ऐसे मूर्ख, तामसी मनुष्यों का वाचक ‘अचेतसः’ पद है। उनको सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए समझने के लिये कहने का यह भाव है कि ऐसे मनुष्यों की बुद्धि विपरीत हो जाती है, वे लौकिक और पारलौकिक सब प्रकार के सुख-साधनों को विपरीत ही समझने लगते हैं; इसी कारण वे विपरीत आचरणों में प्रवृत्त हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप उनका इस लोक और परलोक में पतन हो जाता है, वे अपनी वर्तमान स्थिति से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद उनको अपने कर्मों का फल भोगने के लिये सूकर-कूकरादि नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है या घोर नरकों में पड़कर भयानक यन्त्रणाएँ भोगनी पड़ती हैं।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। 33।।
प्रश्न-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस प्रकार समस्त नदियों का जल जो स्वाभाविक ही समुद्र की ओर बहता है, उसके प्रवाह को हठपूर्वक रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार समस्त प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अधीन होकर प्रकृति के प्रवाह में पड़े हुए प्रकृति की ओर जा रहे हैं; इसलिए कोई भी मनुष्य हठपूर्वक सर्वथा कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। हाँ, जिस तरह नदी के प्रवाह को एक ओर से दूसरी ओर घुमा दिया जा सकता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने उद्देश्य का परिवर्तन करके उस प्रवाह की चाल को बदल सकता है यानी राग-द्वेष का त्याग करके उन कर्मों को परमात्मा की प्राप्ति में सहायक बना सकता है।
प्रश्न-‘प्रकृति’ शब्द का यहाँ क्या अर्थ है?
उत्तर-जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो स्वभाव के रूप में प्रकट होते हैं, उस स्वभाव का नाम ‘प्रकृति’ है।
प्रश्न-यहाँ ‘ज्ञानवान्’ शब्द किसका वाचक है?
उत्तर-परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को जानने वाले भगवत् प्राप्त महापुरुष का वाचक यहाँ ‘ज्ञानवाद्’ पद है।
प्रश्न-‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘अपि’ पद के प्रयोग से यह भाव दिखलाया है कि जब समस्त गुणों से अतीत ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, तब जो अज्ञानी मनुष्य प्रकृति के अधीन हो रहे हैं, वे प्रकृति के प्रवाह को हठ पूर्वक कैसे रोक सकते हैं?
प्रश्न-क्या परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महापुरुषों के स्वभाव भी भिन्न-भिन्न होते हैं?
उत्तर-अवश्य ही सबके स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं, पूर्व साधन और प्रारब्ध के भेद से स्वभाव में भेद होना अनिवार्य है।
प्रश्न-क्या ज्ञानी का भी पूर्वार्जित कर्मों के संस्कार रूप स्वभाव से कोई सम्बन्ध रहता है? यदि नहीं रहता तो इस कथन का क्या अभिप्राय है कि ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है?
उत्तर-ज्ञानी का वस्तुतः न तो कर्म-संस्कारों से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध रहता है और न वह किसी प्रकार की कोई क्रिया ही करता है। किन्तु उसके अन्तःकरण में पूर्वार्जित प्रारब्ध के संस्कार रहते हैं और उसी के अनुसार उसके बुद्धि, मन और इन्द्रियों द्वारा प्रारब्ध-भोग और लोक-संग्रह के लिये बिना ही कर्ता के क्रियाएँ हुआ करती हैं; उन्हीं क्रियाओं का लोकदृष्टि से ज्ञानी में अध्यारोप करके कहा जाता है कि ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। ज्ञानी की क्रियाएँ बिना कर्तापन के होने से राग-द्वेष और अहंता-ममता से सर्वथा शून्य होती हैं; अतएव वे चेष्टा मात्र हैं, उनकी संज्ञा ‘कर्म’ नहीं है-यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘चेष्टते’ क्रिया का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-ज्ञानी के अन्तःकरण में राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि विकार होते ही नहीं या उनसे उसका सम्बन्ध नहीं रहता? यदि उसका अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध न रहने के कारण उस अन्तःकरण में विकार नहीं होते तो शम, दम, तितिक्षा, दया, सन्तोष आदि सद्गुण भी उसमें नहीं होने चाहिये?
उत्तर-ज्ञानी का जब अन्तःकरण से ही सम्बन्ध नहीं रहता तब उसमें होने वाले विकारों से या सद्गुणों से सम्बन्ध कैसे रह सकता है? किन्तु उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र हो जाता है; निरन्तर परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करते-करते जब अन्तःकरण में मल, विक्षेप और आवरण इन तीनों दोषों का सर्वथा अभाव हो जाता है, तभी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होती है। इस कारण उस अन्तःकरण में अविद्यामूलक अहंता, ममता, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, दम्भ, कपट, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि विकार नहीं रह सकते; इनका उसमें सर्वथा अभाव हो जाता है। अतएव ज्ञानी महात्मा पुरुष के उस अत्यन्त निर्मल और परम पवित्र अन्तःकरण में केवल समता, सन्तोष, दया, क्षमा, निःस्पृहता, शान्ति आदि सद्गुणों की स्वाभाविक स्फुरणा होती है और उन्हीं के अनुसार लोक संग्रह के लिये उनके मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा शास्त्र विहित कर्म किये जाते हैं। दुर्गुण और दुराचारों का उसमें अत्यन्त अभाव हो जाता है।
प्रश्न-इतिहास और पुराणों की कथाओं में ऐसे बहुत से प्रसंग आते हैं, जिनमें ज्ञानी सिद्ध महापुरुषों के अन्तःकरण में भी काम-क्रोधादि दुर्गुणों का प्रादुर्भाव ओर इन्द्रियों द्वारा उनके अनुसार क्रियाओं का होना सिद्ध होता है; उस विषय में क्या समझना चाहिये?
उत्तर-उदाहरण की अपेक्षा विधि-वाक्य बलवान् है और विधि-वाक्य से भी निषेध परक वाक्य अधिक बलवान् है, इसके सिवा इतिहास-पुराणों की कथाओं में जो उदाहरण मिलते हैं, उनका रहस्य ठीक-ठीक समझ में आना कठिन भी है। इसलिये यही मानना उचित है कि यदि किसी के अन्तःकरण में सचमुच काम-क्रोधादि दुर्गुणों का प्रादुर्भाव हुआ हो और उनके अनुसार क्रिया हुई तब तो वह भगवत् प्राप्त ज्ञानी महात्मा ही नहीं है; क्योंकि शास्त्रों में कहीं भी ऐसे विधि वाक्य नहीं मिलते जिनके बल पर ज्ञानी महात्मा में काम-क्रोधादि अवगुणों का होना सिद्ध होता है, बल्कि उनके निषेध की बात जगह-जगह आयी है। गीता में भी जहाँ-जहाँ महापुरुषों के लक्षण बतलाये गये हैं, उनमें राग-द्वेष और काम-क्रोध आदि दुर्गुण और दुराचारों का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है। हांँ, यदि लोक-संग्रह के लिये आवश्यक होने पर उन्होंने स्वाँग की भाँति ऐसी चेष्टा की हो तो उसकी गणना अवश्य ही दोषों में नहीं है।
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