नहीं चाहिए कोई दशरथ
नहीं चाहिए कोई दशरथ, मन मोह वशीभूत करे,
रघुकुल रीत निभा न सके, प्राणों का उत्सर्ग करे।
राम सदृश राजा हो अपना, कान्हा जैसी कूटनीति,
साम दाम दण्ड भेद साथ, राष्ट्र भाव को प्रखर करे।
दुश्मन की चालों को जो, चलने से पहले समझ सके,
भाँप हवा का रुख़ सरहद पर, अपनी चालों से त्रस्त करे।
घर के भीतर ग़द्दारों पर भी, जिसकी भौहें तनी रहें,
सबका साथ विकास की नीति, विश्व गुरू बन प्रशस्त करे।
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