पत्रकारिता का अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी
(प्रेमशंकर अवस्थी-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन ने आजादी के अस्त्र शस्त्र का काम किया। ये क्रान्तिकारियों के संवाद का माध्यम तो बने ही, राष्ट्रहित में पत्रकारिता के ‘‘योगदान’’ से देश भक्ति का जज्बा भी कायम किया। उन दिनों अखबार निकालना जोखिम भरा काम था, जहाँ कलम हाँथ में तलवार का काम करती, तो सिर पर बंधा कफन बलिदान का द्योतक होता था। ऐसा ही एक स्वर्णिम अक्षरों में नाम आता है, अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का, उन्हें कौन नही जानता है? जिन्होने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए अपने प्राणों की बलि देकर हिन्दू-मुस्लिम एकता की जो नींव डाली वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक मिसाल बन गयी। ऐसे में पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी के अमर बलिदान को देश कैसे भुला सकता है?
आज अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी जी का 132वां जन्म दिवस इसी 26 अक्टूबर को हमने मनाया है। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अतरसुईया में 26 अक्टूबर 1890 को नाना सहायक जेल बाबू सूरज प्रसाद के यहां हुआ था लेकिन उनका सम्पूर्ण बचपन फतेहपुर जनपद के हथगाम कस्बे में ही बीता। विद्यार्थी जी की माता का नाम गोमती देवी तथा पिता बाबू जय नारायण थे, जो ग्वालियर रियासत मुंगावली में एंग्लो वर्ना स्कूल में सेकेन्ड मास्टर हो गये थे। विद्यार्थी जी के ‘गणेश‘ नामकरण की गाथा तो यह है कि जब स्वयं विद्यार्थी जी गर्भ में पल रहे थे, तो उनकी नानी श्रीमती गंगा देवी ने एक सपना देखा कि वह गणेश जी की मूर्ति अपनी पुत्री को दे रहीं है। इसी आधार पर विद्यार्थी का नाम गणेश पड़ा । विद्यार्थी जी की सबसे प्रमाणित जीवनी खुद उनके बडे भाई स्व0 शिव नारायण छोड गये। अनुज की शहादत के बाद उनके उजडे बाल बच्चों के यही एक मात्र सहारा थे।
विद्यार्थी जी ने अपने बाल्यकाल में हथगाम में रह कर शिक्षा ग्रहण की थी। वह इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि अपने विद्यार्थी जीवन में उन्हें कोर्स से इतर पत्रिकाओं को पढ़ने की खूब आदत थी। शिक्षा ग्रहण के उपरान्त कानपुर सहित कई स्थानो में नौकरियां भी करनी पडी थी। इस बीच विद्यार्थी जी का विवाह इलाहाबाद के एक सम्पन्न परिवार की पुत्री श्रीमती चन्द्रप्रकाश के साथ हुआ था। विद्यार्थी जी का मन नौकरियोें में नहीं लगा और वह नौकरी से त्यागपत्र देकर साल 1911 से गंभीरता से लेखन की ओर मुडे। ‘कर्मयोगी‘ और ‘अभ्युदय‘ में उनके लेख प्रमुखता से छपने लगे। इस दौरान उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हो गया। भारत में अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पं सुन्दर लाल के साथ उनके हिन्दी सा0 कर्मयोगी के सम्पादन में सहयोग देने लगे। उन दिनो इलाहाबाद से निकलने वाले क्रान्तिकारी पत्र ‘कर्मयोगी‘ की बडी धूम थी। कर्मयोगी में अंग्रेजांे के विरूद्ध स्वाधीनता आन्दोलन के बडे-बडे लेख छप रहे थे। धीरे-धीरे यह पत्र क्रान्तिकारियों का बन गया था। इस कारण वह इतना प्रभावित हुये कि गणेश शंकर विद्यार्थी पं0 सुन्दर लाल जी को अपना पत्रकारिता का गुरू मानने लगे थे और उन से पत्रकारिता के गुर सीखे थे। सुन्दर लाल जी कहते है कि विद्यार्थी जी को (कर्मयोगी) से पत्रकारिता की प्रेरणा मिली थी। पं0 सुन्दर लाल ने आगे लिखा है कि वह (कर्मयोगी) पत्र उन दिनो बहुत लोकप्रिय पत्र था। ‘‘जब वह पत्र निकलता था गणेश शंकर विद्यार्थी जो शायद उन दिनो विद्यार्थी ही थे मेरे पास बहुत आया जाया करते थे। हमें बडा प्रेम था। वह शुरू से ही होनहार थे। देशभक्ति की ज्वाला बडे जोरों के साथ उनके हृदय में शुरू से धधकती थी। ‘कर्मयोगी‘ के लिए उन्होने बहुत कुछ लिखा भी है। मुझे इस चीज का गर्व के साथ स्मरण है कि स्व0 गणेश जी ने हिन्दी लिखना कर्मयोगी के दफ्तर में ही सीखा। उनकी पत्रकारिता का शुभारम्भ भी यहीं से हुआ। उन्होंने पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में भी बतौर सहायक के रूप में कार्य किया। विद्यार्थी जी ने द्विवेदी की इस पत्रिका में अनुभव तो पाया किन्तु उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल उन्हे सन्तोष नहीं मिला। उन्होने अपना कर्म क्षेत्र कानपुर को बनाया और अंग्रेजी हुकूमत में निष्पक्ष पत्रकारिता का तानाबाना बुनने के लिए कानपुर से 9 नवम्बर 1913 से महाशय काशीनाथ के सहयोग से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप‘ का प्रकाशन शुरू कर दिया। यही पत्र आगे क्रान्तिकारी पत्र के स्वरूप में तब्दील होकर दैनिक हो गया। इसी के साथ विद्यार्थी जी का राजनीतिक, सामाजिक प्रौढसाहित्य का जीवन प्रारम्भ हुआ। उन्होने पहले लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरू माना किन्तु राजनीति में गांधी के अवतरण के बाद वे उनके अनन्य भक्त हो गये। श्रीमती एनीबेसेन्ट के होमरूल आन्दोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से कार्य किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के छात्र नेता हो गये। कांग्रेस के विभिन्न आन्दोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के विरूद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप‘ मेें लेख लिखने के सम्बन्ध में वे पांच बार जेल गये और ‘प्रताप‘ से कई बार जमानत मांगी गयी। कुछ ही वर्षो में वह उ0प्र0 के चोटी स्तर के कांग्रेसी नेता हो गये।
‘‘प्रताप’’ किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। इसी लिये हम कह सकते है कि ‘प्रताप‘ पूर्णतः किसान आन्दोलन का समर्थक था। उसने किसानों पर होने वाले किसी भी अत्याचार का विरोध किया। विशेषकर तालुकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का खुलकर विरोध किया। उनके लिये किसानों मजदूरों और दरिद्र नारायण की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था। इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने बिहार के चम्पारण व रायबरेली के मुन्शीगंज में किसानों पर अंग्रेजों के हुये अत्याचार और नृसंश हत्या के विरूद्ध ‘प्रताप‘ में प्रमुखता के साथ खबरों का प्रकाशन किया और मुकदमा भी लडे। विद्यार्थी जी ‘प्रताप‘ के दम पर क्रान्तिकारियों की मदद के लिए अन्जान नामों से भी सरदार भगत सिंह, बटुकेशरदत्त, विजय कुमार सिन्हा, चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों के लेख भी प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। जिससे उन्हें आन्दोलनोे में बल मिलता था। इतना ही नहीं ‘प्रताप‘ अखबार के प्रकाशन ने अंग्रेज शासको के दांत खट्टे कर दिये थे। ‘दैनिक प्रताप‘ ने सम्पादन के जो मानदण्ड स्थापित किये थे वह कालजयी साबित हुये धीरे-धीरे प्रताप पूरे देश में पत्रकारिता के क्षेत्र में झण्डा बरदावर हो गया। ऐसे कर्मठ पत्रकार की 25 मार्च 1931 को साम्प्रदायिक दंगे में कानपुर की नई सड़क पर हत्या कर दी गयी।
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