कुछ भी कत्र्तव्य नहीं, फिर भी करता कर्म: कृष्ण
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-मुझे इन तीनों लोकों में मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मनुष्य का सम्बन्ध तो केवल इसी लोक से है। अतः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये उसके कर्तव्य का विधान इस लोक में होता है; किन्तु मैं साधारण मनुष्य नहीं हूँ, स्वयं ही सबके कर्तव्य का विधान करने वाला साक्षात् परमेश्वर हूँं। अतः स्वर्ग, मृत्युलोक और पाताल इन तीनों ही लोकों में सदा स्थित हूँ। मेरे लिये किसी लोक में कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है।
प्रश्न-मुझे इन तीनों लोकों में कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस लोक की तो बात ही क्या है, तीनों लोकांे में कहीं भी ऐसी कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु नहीं है, जो मुझे प्राप्त न हो; क्योंकि मैं सर्वेश्वर, पूर्ण काम और सबकी रचना करने वाला हँू।
प्रश्न-तो भी मैं कर्मों में ही बरतता हूँ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है और मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है तो भी लोकसंग्रह की ओर देखकर मैं सब लोगों पर दया करके कर्मों में ही लगा हुआ है, कर्मों का त्याग नहीं करता। इसलिये किसी मनुष्य को ऐसा समझकर कर्मो का त्याग नहीं कर देना चाहिये कि मेरी भोगों में आसक्ति नहीं है और मुझे कर्मों के फलरूप में किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है तो मैं कर्म किसलिये करूँ, या मुझे परम पद की प्राप्ति हो चुकी है तब फिर कर्म करने की क्या जरूरत है। क्योंकि अन्य किसी कारण से कर्म करने की आवश्यकता न रहने पर भी मनुष्य को लोकसंग्रह की दृष्टि से कर्म करना चाहिये।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। 23।।
प्रश्न-‘हि’ पद का यहाँ क्या भाव है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में भगवान् ने जो यह बात कही कि मेरे लिये सर्वथा कर्तव्य का अभाव होने पर भी मैं कर्म करता हूँ, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यदि आपके लिये कर्तव्य ही नहीं है तो फिर आप किसलिये कर्म करते हैं। अतः दो श्लोकांे में भगवान् अपने कर्म का हेतु बतलाते हैं इसी बात का द्योतक यहाँ ‘हि’ पद है।
प्रश्न-‘यदि’ और ‘जातु’-इन दोनों पदों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इनका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरा अवतार धर्म की स्थापना के लिये होता है, इस कारण मैं कभी किसी भी काल में सावधानी के साथ सांगोपांग समस्त कर्मों का अनुष्ठान न करूँ यानी उनकी अवहेलना कर दूँ-यह सम्भव नहीं है; तो भी अपने कर्मों का हेतु समझाने के लिये यह बात कही जाती है कि ‘यदि मैं कदाचित् सावधानी के साथ कर्मों में न बरतँू तो बड़ी भारी हानि हो जाय; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् का कर्ता, हर्ता और संचालक एवं मर्यादा पुरुषोत्तम होकर भी यदि मैं असावधानी करने लगूँ तो सृष्टि चक्र में बड़ी भारी गड़बड़ी मच जाय।’
प्रश्न-मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि बहुत लोग तो मुझे बड़ा शक्तिशाली और श्रेष्ठ समझते हैं और बहुत से मर्यादा पुरुषोत्तम समझते हैं, इस कारण जिस कर्म को मैं जिस प्रकार करता हँू, दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी उसे उसी प्रकार करते हैं अर्थात् मेरी नकल करते हैं। ऐसी स्थिति में यदि मैं कर्तव्य कर्मों की अवहेलना करने लगूँ, उनमें सावधानी के साथ विधि पूर्वक न बरतूँ तो लोग भी उसी प्रकार करने लग जायँ। अतएव लोगों को कर्म करने की रीति सिखलाने के लिये मैं समस्त कर्मों में स्वयं बड़ी सावधानी के साथ विधिवत् बरतता हूँ, कभी कहीं भी जरा भी असावधानी नहीं करता।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।। 24।।
प्रश्न-यहाँ ‘यदि मैं कर्म न करूँ’ यह कहने की क्या आवश्यकता थी? क्यांकि पूर्व श्लोक में यह बात कह ही दी गयी थी कि ‘यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ’ इसलिये इस पुनरुक्ति का क्या भाव है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में ‘यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ’ इस वाक्यांश से तो सावधानी के साथ विधिपूर्वक कर्म न करने से होने वाली हानि का निरूपण किया गया है और इस श्लोक में ‘यदि मैं कर्म न करूँ’ इस वाक्यांश से कर्मों के न करने से यानी उनका त्याग कर देने से होने वाली हानि बतलायी गयी है। इसलिये यह पुनरुक्ति नहीं है। दोनों श्लोकों में अलग-अलग दो बातें कही गयी हैं।
प्रश्न-यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दूँ तो उन शास्त्र विहित कर्मों को व्यर्थ समझकर दूसरे लोग भी मेरा देखा-देखी उनका परित्याग कर दंेगे और राग-द्वेष के वश होकर एवं प्रकृति के प्रवाह में पड़कर मनमाने नीच कर्म करने लगेंगे तथा एक-दूसरे का अनुकरण करके सब-के-सब स्वार्थ परायण, भ्रष्टाचारी और उच्छृंखल हो जायेंगे। ऐसा होेने से वे सांसारिक भोगों में आसक्त होकर अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये एक-दूसरे की हानि की परवा न करके अन्यायपूर्वक शास्त्र विरुद्ध लोकनाशक पापकर्म करने लगेंगे। इसके फलस्वरूप उनका मनुष्य जन्म भ्रष्ट हो जायगा और करने के बाद उनको नीच योनियों में या नरकों में गिरना पड़ेगा।
प्रश्न-इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जिस समय कर्तव्य भ्रष्ट हो जाने से लोगों में सब प्रकार की संकरता फैल जाती है, उस समय मनुष्य भोग-परायण और स्वार्थान्ध होकर भिन्न-भिन्न साधनों से एक-दूसरे का नाश करने लग जाते हैं, अपने अत्यंत क्षुद्र और क्षणिक सुखोपभोग के लिये दूसरों का नाश कर डालने में जरा भी नहीं हिचकते। इस प्रकार अत्याचार बढ़ जाने पर उसी के साथ-साथ नयी-नयी दैवी विपत्तियाँ भी आने लगती हैं-जिनके कारण सभी प्राणियों के लिये आवश्यक खान-पान और जीवनधारण की सुविधाएं प्रायः नष्ट हो जाती हैं; चारों ओर महामारी, अनावृष्टि, जल-प्रलय, अकाल, अग्निकोप, भूकम्प और उल्कापात आदि उत्पात होने लगते हैं। इससे समस्त प्रजा का विनाश हो जाता है। अतः भगवान् ने मैं समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ इस वाक्स से यह भाव दिखलाया है कि यदि मैं शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दूँ तो मुझे उपर्युक्त प्रकार से लोगों को उच्छृंखल बनाकर समस्त प्रजा का नाश करने में निमित्त बनना पड़े।
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