ओढ़कर धानी चुनरिया
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यू हरसा रही।
काली घटाएं नीले अंबर, व्योम घिरकर छा रही।
खलिहानों में हरियाली आई, गीत कोयल गा रही।
उपवन पर्वत नदियां, मनभावन घटायें छा रही।
मादक सरितायें बहती, सागर मिलन को जा रही।
बलखाती सी बहती धारा, मन ही मन इठला रही।
अलमस्त बहारें रस भर मल्हार गीत सुना रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
बाग में झूले लगे हैं, मधुर बह रही पुरवाई है।
सोलह कर सिंगार सुंदरी, झूला झूलन आई है।
गौरी मेहंदी रचकर आई, आया दीपों का त्योहार।
खिल गए पुष्प मोहक, महक रहा घर संसार।
सारी सखियां खुशियां लेकर, गीत नेह गा रही।
अपनापन अनमोल सलोना, प्रेम सुधा बरसा रही।
हरियाली सबके मन भाती, तन मन को हर्षा रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
खेतों में हरियाली आई, खुशियां छाई घर-घर में।
गड़ गड़ मेंघ गर्जन करते, दामिनी दमके अंबर में।
उर में उठती नेह लहरें, नैनों से बरसता प्यार।
भाई-बहन प्रेम सूचक, भैया दूज का त्यौहार।
गोवर्धन पूजन भावन, मस्त चल रही पुरवाई।
झूम झूम बांसुरिया धुन पर, नाचे लोग लुगाई।
गीतों की मधुर लहरिया, आसमां तक गुंजा रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
रमाकांत सोनी नवलगढ़ जिला झुंझुनू राजस्थान
प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत की गई रचना स्वरचित व मौलिक है।
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