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भगवान में समर्पण है अध्यात्म चित्त

भगवान में समर्पण है अध्यात्म चित्त

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। 30।।

प्रश्न-‘अध्यात्मचेतसा’ पद में ‘चेतस्’ शब्द किस चित्त का वाचक है और ‘उसके द्वारा समस्त कर्मों को भगवान् में अर्पण करना’ क्या है?

उत्तर-सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरूप को समझकर उन पर विश्वास करने वाले और निरन्तर सर्वत्र उनका चिन्तन करते रहने वाले चित्त का वाचक यहाँ ‘चेतस्’ शब्द है। इस प्रकार के चित्त से जो भगवान् को सर्व शक्क्तिमान, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर तथा परम प्राप्य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय, परम सुहृद और परम दयालु समझकर, अपने अन्तःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर को, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मो को और जगत् के समस्त पदार्थों को भगवान् के जानकर उन सबमें ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान् ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार यथायोग्य समस्त कर्म करवा रहे हैं, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ-इस प्रकार अपने को सर्वथा भगवान् के अधीन समझकर भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं के लिये उन्हीं की प्रेरणा से जैसे वे करावें वैसे ही समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना, उन कर्मों से या उनके फल से किसी प्रकार का भी अपना मानसिक सम्बन्ध न रखकर सब कुछ भगवान का समझना-यही ‘अध्यात्मचित्त से समस्त कर्मों को भगवान् को समर्पण कर देना है। इसी प्रकार भगवान् में समस्त कर्मों का त्याग करने की बात बारहवें अध्याय के छठे श्लोक में तथा अठारहवें अध्याय के सत्तावनवें और छाछठवें श्लोकों में भी कही गयी है।

प्रश्न-उपर्युक्त प्रकार से समस्त कर्म भगवान् में अर्पण कर देने पर आशा, ममता और सन्ताप का तो अपने आप ही नाश हो जाता है; फिर यहाँ आशा, ममता और सन्ताप से रहित होकर युद्ध करने के लिये कहने का क्या भाव है?

उत्तर-भगवान् में अध्यात्मचित्त से समस्त कर्म समर्पण कर देने पर आशा, ममता और सन्ताप नहीं रहते-इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये यहाँ भगवान् ने अर्जुन को आशा, ममता और सन्ताप से रहित होकर युद्ध करने के लिये कहा है। अभिप्राय यह है कि तुम समस्त कर्मों का भार मुझ पर छोड़कर सब प्रकार से आशा-ममता, राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकारों से रहित हो जाओ और ऐसे होकर मेरी आज्ञा के अनुसार युद्ध करो। इसलिये यह समझना चाहिये कि कर्म करते समय या उनका फल भोगते समय जब तक साधक की उन कर्मों में या भोगों में ममता, आसक्ति या कामना है अथवा उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार होते हैं, तब तक उसके समस्त कर्म भगवान् के समर्पित नहीं हुए हैं।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।। 31।।

यहाँ ‘ये’ के सहित ‘मानवाः’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-इसके प्रयोग से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह साधन किसी एक जाति विशेष या व्यक्ति विशेष के लिये ही सीमित नहीं है। इसमें मनुष्य मात्र का अधिकार है। प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति या समाज का मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मों को उपर्युक्त प्रकार से मुझमें समर्पण करके इस साधन का अनुष्ठान कर सकता है।

प्रश्न-‘श्रद्धावन्तः’ और ‘अनसूयन्तः’-इन दोनो ंपदों का क्या भाव है?

उत्तर-इन पदों के प्रयोग से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिन मनुष्यों की मुझमें दोष दृष्टि है, जो मुझे साक्षात् परमेश्वर न समझकर साधरण मनुष्य मानते हैं और जिनका मुझ पर विश्वास नहीं है, वे इस साधन के अधिकारी नहीं हैं। इस साधन का अनुष्ठान वे ही मनुष्य कर सकते हैं जो मुझमें कभी किसी प्रकार की दोष दृष्टि नहीं करते और सदा श्रद्धा-भक्ति रखते हैं। अतएव इस साधन का अनुष्ठान करने की इच्छा वाले को उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न हो जाना चाहिये। इनके बिना इस साधन का अनुष्ठान करना तो दूर रहा, इसे समझना भी कठिन है।

प्रश्न-‘नित्यम्’ पद ‘मतम्’ का विशेषण है या ‘अनुतिष्ठन्ति का?

उत्तर-भगवान् का मत तो नित्य है ही, अतः उसका विशेषण मान लेने में भी कोई हानि की बात नहीं है; पर यहाँ उसे ‘अनुतिष्ठन्ति’ क्रिया का विशेषण मानना अधिक उपयोगी मालूम होता है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त साधक को समस्त कर्म सदा के लिये भगवान् में समर्पित करके अपनी सारी क्रियाएँ उसी भाव से करनी चाहिये।

प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके ‘वे भी सम्पूर्ण कर्मो से छूट जाते हैं’ इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने अर्जुन को यह भाव दिखलाया है कि जब इस साधन के द्वारा दूसरे मनुष्य भी समस्त कर्मों से मुक्त हो जाते हैं अर्थात् जन्म-मरण रूप कर्म बन्धन से सदा के लिए मुक्त होकर परम कल्याण स्वरूप मुझ परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं, जब तुम्हारे लिये तो कहना ही क्या है?

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ।। 32।।

प्रश्न-‘तु’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में वर्णित साधकों से अत्यन्त विपरीत चलने वाले मनुष्यों की गति इस श्लोक में बतलायी जाती है, इसी भाव का द्योतक यहाँ ‘तु’ पद है।

प्रश्न-भगवान् में दोषारोपण करते हुए भगवान् के मत के अनुसार न बरतना क्या है? उत्तर-भगवान् को साधारण मनुष्य समझकर उनमें ऐसी भावना करना या दूसरों से ऐसा कहना कि ‘ये अपनी पूजा कराने के लिये इस प्रकार का उपदेश देते हैं; समस्त कर्म इनके अर्पण कर देने से ही मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता हो, ऐसा कभी नहीं हो सकता’ आदि-आदि-यह भगवान् में दोषारोपण करना है। और ऐसा समझकर भगवान् के कथनानुसार ममता, आसक्ति और कामना का त्याग न करना, कर्मों को परमेश्वर के अर्पण न करके अपनी इच्छा के अनुसार कर्मों में बरतना और शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देना-यही भगवान् में दोषारोपण करते हुए उनके मत के अनुसार न चलना है।
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