गुण विभाग व कर्म विभाग का उपदेश
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। 28।।
प्रश्न-‘तु’ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-सत्ताइवें श्लोक में वर्णित अज्ञानी की स्थिति से ज्ञानयोगी की स्थिति का अत्यन्त भेद है, यह दिखलाने के लिये ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-गुण विभाग और कर्म विभाग क्या है तथा उन दोनों के तत्त्व को जानना क्या है?
उत्तर-सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के कार्यरूप जो तेईस तत्त्व हैं, जिनका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में किया गया है, उन तेईस तत्त्वों का समुदाय ही गुण विभाग है। ध्यान रहे कि अन्तःकरण के जो सात्त्विक, राजस और तामस-ऐसे तीन भेद माने जाते हैं और जिनके सम्बन्ध से अमुक मनुष्य सात्त्विक है, अमुक राजस और तामस है-ऐसा कहा जाता है, वे गुण वृत्तियाँ भी गुण विभाग के ही अन्तर्गत हैं।
उपर्युक्त गुण विभाग से जो भिन्न-भिन्न क्रियाएँ की जाती हैं, जिनका वर्णन पूर्व श्लोक की व्याख्या में किया जा चुका है, जिन क्रियाओं में कर्तृत्वाभिमान एवं आसक्ति होने से मनुष्य का बंधन होता है, उन समस्त क्रियाओं का समूह ही कर्म विभाग है। उपर्युक्त गुण विभाग और कर्मविभाग सब प्रकृति का ही विस्तार है। अतएव ये सभी जड़, क्षणिक, नाशवान् और विकारशील हैं, मायामय हैं, स्वप्न की भाँति बिना हुए ही प्रतीत हो रहे हैं। इस गुण विभाग और कर्म विभाग से आत्मा सर्वथा अलग है, आत्मा का इनसे जरा भी सम्बन्ध नहीं है; वह सर्वथा निर्गुण निराकार, नित्य शुद्ध मुक्त और ज्ञान स्वरूप है-इस तत्त्व को भलीभाँति समझ लेना ही ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ के तत्त्व को जानना है।
प्रश्न-‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ के तत्त्व को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से गुण विभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली हरेक क्रिया में यही समझता है कि गुणों के कार्यरूप अपने-अपने विषयों में बरत रहे हैं, मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इस कारण वह किसी भी कर्म में या कर्म फलरूप भोगों में आसक्त नहीं होता अर्थात् किसी भी कर्म से या उसके फल से अपना किसी प्रकार का भी सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। उनको अनित्य, जड़, विकारी और नाशवान् तथा अपने को सदा-सर्वदा नित्य शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार, अकर्ता और सर्वथा असंग समझता है। पाँचवें अध्याय के आठवें और नवें श्लोकों में और चैदहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में यही बात कही गयी है।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।। 29।।
प्रश्न-‘प्रकृतेः गुणसम्मूढाः’ यह विशेषण किस श्रेणी के मनुष्यों का लक्ष्य कराता है तथा वे गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-पचीसवें और छब्बीसवें श्लोकांे में जिन कर्मासक्त अज्ञानियों की बात कही गयी है, यहाँ ‘प्रकृतेः गुण-सम्मूढाः’ पद उन्हीं इस लोक और परलोक के भोगों की कामना से श्रद्धा और आसक्ति पूर्वक कर्मों में लगे हुए सत्त्व मिश्रित रजोगुणी सकामी कर्मठ मनुष्यों का लक्ष्य कराने वाला है; क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति के लिये साधना करने वाले जो शुद्ध सात्त्विक मनुष्य हैं, वे प्रकृति के गुणों से मोहित नहीं हैं और जो निषिद्ध कर्म करने वाले तामसी मनुष्य हैं, उनक शास्त्रों में श्रद्धा न रहने के कारण उनका न तो विहित कर्मों में प्रेम है और न वे विहित कर्म करते ही हैं। इसलिये उन तामसी मनुष्यों को कर्मों से विचलित न करने के लिये कहना नहीं बनता, बल्कि उनसे तो शास्त्रों में श्रद्धा करवाकर निषिद्ध कर्म छुड़वाने और विहित कर्म करवाने की आवश्यकता होती है तथा वे सकाम मनुष्य गुणों से और कर्मों से आसक्त रहते हैं’। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि गुणों से मोहित रहने के कारण उन लोगों को प्रकृति से अतीत सुख का कुछ भी ज्ञान नहीं है, वे सांसारिक भोगों को ही सबसे बढ़कर सुखदायक समझते हैं; इसीलिये वे गुणों के कार्य रूप भोगों में और उन भोगों की प्राप्ति के उपाय भूत कर्मों में ही लगे रहते हैं, वे उन गुणों के बन्धन से छूटने की इच्छा या चेष्टा करते ही नहीं ।
प्रश्न-‘तान्’ पद के सहित ‘अकृतत्सन्न विदः’ और ‘भन्दान्’ पद से क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-इन तीनों पदों से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त श्रेणी के सकाम मनुष्य यथार्थ तत्त्व को न समझने पर भी शास्त्रोक्त कर्मो में और उनके फल में श्रद्धा रखने वाले होने के कारण किसी अंश में तो समझते ही हैं; इसलिये अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानकर मनमाना आचरण करने वाले तामसी पुरुषों से वे बहुत अच्छे हैं। वे सर्वथा बुद्धिहीन नहीं हैं, अल्पबुद्धि वाले हैं, इसीलिये उनके कर्मों का फल परमात्मा की प्राप्ति न होकर नाशवान् भोगों की प्राप्ति ही होता है।
प्रश्न-कृत्स्नवित् पद किसका वाचक है और वह उन अज्ञानियों को विचलित न करे, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-पूर्वोक्त प्रकार से गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को पूर्णतया समझकर परमात्मा के स्वरूप को पूर्णतया यथार्थ जान लेने वाले ज्ञानी महापुरुष का वाचक यहाँ ‘कृत्स्नवित्’ पद है। और वह उन अज्ञानियों को विचलित न करे इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि कर्मों में लगे हुए अविकारी सकाम मनुष्यों को ‘कर्म अत्यन्त ही परिश्रम साध्य हैं, कर्मों में रक्खा ही क्या है, यह जगत् मिथ्या है, कर्म मात्र ही बन्धन के हेतु हैं, ऐसा उपदेश देकर शास्त्र विहित कर्मों से हटाना या उनमें उनकी श्रद्धा और रुचि कम कर देना उचित नहीं है; क्योंकि ऐसा करने से उनके पतन की सम्भावना है इसलिये शास्त्र विहित कर्मों में उनका विधान करने वाले शास्त्रों में और उनके फल में उन लोगों के विश्वास को स्थिर रखते हुए ही उन्हंे यथार्थ तत्व समझाना चाहिये। साथ ही उन्हंे ममता, आशक्ति और फलेच्छा का त्याग करके श्रद्धा, धैर्य और उत्साह पूर्वक सात्विक कर्म या सात्विक त्याग करने की रीति बतलानी चाहिए, जिससे वे अनायास ही उस तत्त्व को भलीभाँति समझ सकें।
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