गुरुनानक ने बताया था मेहनत का महत्व
(मोहिता-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
सिखों के संस्थापक और प्रथम गुरु नानक देव जी ने अपने अनुयाइयों को 10 मंत्र दिये थे। इन दस सिद्धांतों में बताया था कि इंसान को ईमानदारी से मेहनत करके उदरपूर्ति करनी चाहिए। इस प्रकार मेहनत को गुरुनानक ने विशेष महत्व दिया है। गुरुनानक ने बताया कि ईश्वर एक है और सदैव उसी की उपासना करनी चाहिए। सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना करने वाले को किसी का भय नहीं सताता है। उन्होंने अपने अनुयाइयों को शिक्षा दी थी कि सभी स्त्री-पुरुष समान हैं। भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए लेकिन इसके लिए लोभ-लालच और संग्रह नहीं करना चाहिए। पहली बार गुरु नानकदेव ने निस्वार्थ सेवा को वास्तविक लाभ बताया और इसी के चलते सिख समारोहों में लंगर का प्रचलन हुआ था जो आज भी जारी है। नानकदेव जी का जन्म वर्तमान के पाकिस्तान में पंजाब में राबी नदी के तट पर तलबड़ी नामक गांव में हुआ था। वहां एक गुरुद्वारा आज भी बना है जहां भारत से सिख दर्शन-पूजन करने जाते हैं। हर साल कार्तिक मास की पूर्णिमा पर गुरु नानक जयंती मनाई जाती है। इस पावन दिन को गुरु पूरब या प्रकाश पर्व के नाम से भी जाना जाता है। सिख धर्म को मानने वाले लोगों के लिए यह दिन बहुत खास होता है. इस दिन सिखों द्वारा बड़े पैमाने पर कई कार्यक्रम व नगर कीर्तन का आयोजन किया जाता है। इस दिन प्रभात फेरियां भी निकाली जाती है. लोग इस दिन गुरुद्वारों में सेवा भी करते हैं।
धार्मिक कट्टरता के वातावरण में उदित गुरु नानक ने धर्म को उदारता की एक नई परिभाषा दी। उन्होंने अपने सिद्धान्तों के प्रसार हेतु एक संन्यासी की तरह घर का त्याग कर दिया और लोगों को सत्य और प्रेम का पाठ पढ़ाना आरंभ कर दिया। उन्होंने जगह-जगह घूमकर तत्कालीन अंधविश्वासों, पाखन्डों आदि का जमकर विरोध किया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। धार्मिक सदभाव की स्थापना के लिए उन्होंने सभी तीर्थों की यात्रायें की और सभी धर्मों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने हिन्दू धर्म और इस्लाम, दोनों की मूल एवं सर्वोत्तम शिक्षाओं को सम्मिश्रित करके एक नए धर्म की स्थापना की जिसके मूलाधार थे प्रेम और समानता। यही बाद में सिख धर्म कहलाया। भारत में अपने ज्ञान की ज्योति जलाने के बाद उन्होंने मक्का मदीना की यात्रा की और वहां के निवासी भी उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। 25 वर्ष के भ्रमण के पश्चात् नानक कर्तारपुर में बस गये और वहीँ रहकर उपदेश देने लगे। उनकी वाणी आज भी ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संगृहीत है।सन 1485 ई. में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ। 31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए। घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रुपयों को गुरु नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है।
नवम्बर, सन् 1504 ई. में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरु नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया। नवम्बर, 1504 ई. से अक्टूबर 1507 ई. तक वे सुल्तानपुर में ही रहें। बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खां के यहां मादी रख लिये गये। उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया। वहां की जनता तथा वहां के शासक दौलत खां नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए। वे अपनी आय का अधिकांश भाग गरीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे। मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरु नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा। गुरु नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। राय बुल्लर ने सबसे पहले गुरु नानक की दिव्यता को समझा और उससे खुश होकर नानक को पाठशाला में रखा। नानक के गुरु उसकी आध्यात्मिक काव्य रचनाओे को सुनकर चकित रह गये। जब नानक को हिन्दू धर्म के पवित्र जनेऊ समारोह से गुजरने की बारी आयी तो उन्होंने उसमे भाग लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका जनेऊ दया, संतोष, संयम से बंधा और सत्य का बुना होगा जो न जल सकेगा, न मिटटी में मिल सकेगा, न खो पायेगा और न कभी घिसेगा।
नानक देव के पिता कालू ने नानक को व्यापार के धंधे में लगा दिया। नानक ने व्यापारी बनकर कमाई के धन से भूखांे को भोजन खिलाना शुरू कर दिया तभी से लंगर का इतिहास शुरू हुआ था। नानक को व्यापार के लिए उनके पिता ने भेजा तो उनको 20 रूपये देकर इन पैसो से फायदा कमाने को कहा। रास्ते में उनको साधुओे और गरीब लोगों का समूह मिला तो उन्होंने उन पैसो से उनके लिए भोजन और कपड़ांे की व्यवस्था की। नानक जब घर खाली हाथ लौटे तो उनके पिता ने उनको सजा दी। गुरु नानक देव ने निस्वार्थ सेवा को असली लाभ बताया। इसी वजह से लंगर की शुरुआत हुई।
गुरूनानक देव जी ने अपने अनुयायियों को जीवन के दस सिद्धांत दिए थे। इनमें पहला था ईश्वर एक है। सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो। जगत का कर्ता सब जगह और सब प्राणी मात्र में मौजूद है। सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता। ईमानदारी से मेहनत करके उदरपूर्ति करना चाहिए। बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ। सदा प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने को क्षमाशीलता माँगना चाहिए। मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए। सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं। भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
बताते हैं सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) जब एक बार गुरु नानक अपने सखा मर्दाना के साथ वैन नदी के किनारे बैठे थे तो अचानक उन्होंने नदी में डुबकी लगा दी और तीन दिनों तक लापता हो गए, जहाँ पर उन्होंने ईश्वर से साक्षात्कार किया। सभी लोग उन्हें डूबा हुआ समझ रहे थे, लेकिन वे वापस लौटे तो उन्होंने कहा- एक ओंकार सतिनाम। गुरु नानक ने वहाँ एक बेर का बीज बोया, जो बाद में बहुत बड़ा वृक्ष बन गया है। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर 22 सितम्बर 1539 ईस्वी को इनका परलोक वास हुआ। मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।
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