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अवांच्छित दर्प में हम फँस रहे हैं

अवांच्छित दर्प में हम फँस रहे हैं

डा रामकृष्ण
न जाने कौन कितना ऊबता है
किनारे कौन कितना ऊँघता है
हवा की अकथ मनमानी कथाएँ
कोई तो है कहीं जो सूँघता है।
उन्ही की टोह में हम
बस रहे हैं।


बंडंडर सा हमारे सामने ही
खड़ा हो हमें क़ोई साधने ही
मृदा के रंग में रंगीन तन को
चला आया किसी को तारने ही।
उसी के जोश मे हम
कस रहे हैं।


धमकती धूल की आँधी चली हो
समय के गरुड़ पाँखों पर पली हो
अनय का शोर भी उटने लगा था
बहुत संकोच की पतली गली हो।
धमकते कीच में हम
धँस रहे हैं।

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