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गुण कर्म विभाजन का उपदेश

गुण कर्म विभाजन का उपदेश

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि लोग मेरा अनुसरण करते हैं इसलिये यदि मैं इस प्रकार प्रेम और सौहार्द का बर्ताव करूँगा तो दूसरे लोग भी मेरी देखा-देखी ऐसे ही निःस्वार्थ भाव से एक दूसरों के साथ यथायोग्य प्रेम और सुहृदता का बर्ताव करेंगे। अतएव इस नीति का जगत् में प्रचार करने के लिये भी ऐसा करना मेरा कर्तव्य है, क्योंकि जगत् में धर्म की स्थापना करने के लिए ही मैंने अवतार धारण किया है।

कांगन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।। 12।।

प्रश्न-‘इह मानुषे लोके’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यज्ञादि कर्मों द्वारा इन्द्रादि देवताओं की उपासना करने काअधिकार मनुष्य योनि में ही है, अन्य योनियों में नहीं-यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘इह’ और ‘मानुषे’ के सहित ‘लोके’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-कर्मों का फल चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं, क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है-इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिनकी सांसारिक भोगों में आसक्ति है; जो अपने किए हुए कर्मों का फल स्त्री, पुत्र, धन, मकान या मान-बड़ाई के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं-उनका विवेक ज्ञान नाना प्रकार की भोग-वासनाओं से ढका रहने के कारण वे मेरी उपासना न करके, कामना-पूर्ति के लिये इन्द्रादि देवताओं की ही उपासना किया करते हैं, क्योंकि उन देवताओं का पूजन करने वालों को उनके कर्मों का फल तुरंत मिल जाता है। देवताओं का यह स्वभाव है कि वे प्रायः इस बात को नहीं सोचते कि उपासक को अमुक वस्तु देने में उसका वास्तविक हित है या नहीं; वे देखते हैं कर्मानुष्ठान की विधिवत् पूर्णता। सांगोपांग अनुष्ठान सिद्ध होने पर वे उसका फल, जो उनके अधिकार में होता है और जो उस कर्मानुष्ठान के फलरूप में विहित है, दे ही देते हैं। किन्तु मैं ऐसा नहीं करता, मैं अपने भक्तों का वास्तविक हित-अहित सोचकर उनकी भक्ति के फल की व्यवस्था करता हूँ। मेरे भक्त यदि सकाम भाव से भजन करते हैं तो भी मैं उनकी उसी कामना को पूर्ण करता हूँ जिसकी पूर्ति से उनका विषयों से वैराग्य होकर मुझ में प्रेम और विश्वास बढ़ता है। अतएव सांसारिक मनुष्यों को मेरी भक्ति का फल शीघ्र मिलता हुआ नहीं दीखता; और इसीलिये वे मन्दबुद्धि मनुष्य कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा से अन्य देवताओं का ही पूजन किया करते हैं।

चातुर्वण्र्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तामव्ययम्।। 13।।

प्रश्न-गुण कर्म क्या है और उसके विभागपूर्वक भगवान् द्वारा चारों वर्णों के समूह की रचना की गयी है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अनादि काल से जीवों के जो जन्म-जन्मांतरों में किये हुए कर्म हैं, जिनका फल भोग नहीं हो गया है, उन्हीं के अनुसार उनमें यथायोग्य सत्त्व, रज और तमोगुण की न्यूनाधिकता होती है। भगवान् जब सृष्टि-रचना के समय मनुष्यों का निर्माण करते हैं, तब उन-उन गुण और कर्मों के अनुसार उन्हें ब्राह्मणादि वर्णों में उत्पन्न करते हैं। अर्थात् जिनमें सत्त्वगुण अधिक होता है उन्हें ब्राह्मण बनाते हैं, जिनमें सत्त्व मिश्रित रजोगुण की अधिकता होती है उन्हें क्षत्रिय, जिनमें तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है उन्हें वैश्य और जो रजोमिश्रिततमः प्रधान होते हैं, उन्हें शूद्र बनाते हैं। इस प्रकार रचे हुए वर्णों के लिये उनके स्वभाव के अनुसार पृथक्-पृथक कर्मों का विधान भी भगवान् ही कर देते हैं-अर्थात् ब्राह्मण शम-दमादि कर्मों में रत रहें, क्षत्रिय शौर्य-तेज आदि हों, वैश्य कृषि-गोरक्षा में लगें और शूद्र सेवा परायण हों। ऐसा कहा गया है। इस प्रकार गुण कर्मविभाग पूर्वक भगवान् के द्वारा चतुर्वर्ण की रचना होती है। यही व्यवस्था जगत् में बराबर चलती है। जब तक वर्ण शुद्धि बनी रहती है, एक ही वर्ण के स्त्री-पुरुषों के संयोग से सन्तान उत्पन्न होती है, विभिन्न वर्णों के स्त्री-पुरुषों के संयोग से वर्ण में संकरता नहीं आती, तब तक इस व्यवस्था में कोई गड़बड़ी होने पर भी वर्ण व्यवस्था न्यूनाधिक रूप से रहती ही है।

यहाँ कर्म और उपासना का प्रकरण है। उसमें केवल मनुष्यों का ही अधिकार है। इसीलिय यहाँ मनुष्यों को उप लक्षण बनाकर कहा गया है। अतएव यह भी समझ लेना चाहिये कि देव, पितर और तिर्यक् आदि दूसरी-दूसरी योनियों की रचना भी भगवान् जीवों के गुण और कर्मों के अनुसार ही करते हैं। इसलिये इन सृष्टि- रचनादि कर्मों में भगवान् की किंचित मात्र भी विषमता नहीं है, यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि मेरे द्वारा चारों वर्णों की रचना उनके गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक की गयी है।

प्रश्न-ब्राह्मणादि वर्णों के विभाग जन्म से मानना चाहिये या कर्म से? 
उत्तर-यद्यपि जन्म और कर्म दोनों ही वर्ण के अंग होने के कारण वर्ण की पूर्णता तो दोनों से ही होती है परन्तु प्रधानता जन्म की है इसलिये जन्म से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानना चाहिये; क्योंकि इन दोनों में प्रधानता जन्म की ही है। यदि माता-पिता एक वर्ण के हों और किसी प्रकार से भी जन्म में संकरता न आवे तो सहज ही कर्म में भी प्रायः संकरता नहीं आती। परन्तु संगदोष, आहार दोष और दूषित शिक्षा-दीक्षादि कारणों से कर्म में कहीं कुछ व्यक्ति क्रम भी हो जाय तो जन्म से वर्ण मानने पर वर्ण रक्षा हो सकती है। तथापि कर्म श्ुाद्धि की कम आवश्यकता नहीं है। कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर वर्ग की रक्षा बहुत ही कठिन हो जाती है। अतः जीविका और विवाहादि व्यवहार के लिये तो जन्म की प्रधानता तथा कल्याण की प्राप्ति में कर्म की प्रधानता माननी चाहिये; क्योंकि जाति से ब्राह्मण होने पर भी यदि उसके कर्म ब्राह्मणोंचित नहीं हैं तो उसका कल्याण नहीं हो सकता तथा सामान्य धर्म के अनुसार शम-दमादि का पालन करने वाला और अच्छे आचरण वाला शूद्र भी ब्राह्मणोचित यज्ञादि कर्म करता है और उससे अपनी जीविका चलाता है तो पाप का भागी होता है।
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