रागद्वैष साधना में डालते बाधा
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-ये राग-द्वेष साधक के कल्याण मार्ग में किस प्रकार बाधा डालते हैं?
उत्तर-जिस प्रकार अपने निश्चित स्थान पर जाने के लिये राह चलने वाले किसी मुसाफिर को मार्ग में विघ्न करने वाले लुटेरों से भेंट हो जाय और वे मित्रता का-सा भाव दिखलाकर और उसके साथ गाड़ीवान आदि से मिलकर उनके द्वारा उसकी विवेक शक्ति में भ्रम उत्पन्न कराकर उसे मिथ्या सुखों का प्रलोभन देकर अपनी बातों में फँसा लें और उसे अपने गन्तव्य स्थान की ओर न जाने देकर उसके विपरीत जंगल में ले जायँ और उसका सर्वस्व लूटकर उसे गहरे गड्ढे में गिरा दें, उसी प्रकार ये राग-द्वेष कल्याण मार्ग में चलने वाले साधक से भेंट करके मित्रता का भाव दिखलाकर उसके मन और इन्द्रियों में प्रविष्ट हो जाते हैं और उसकी विवेक शक्ति को नष्ट करके तथा उसे सांसारिक विषय भोगों के सुख का प्रलोभन देकर पापाचार में प्रवृत्त कर देते हैं। इससे उसका साधन क्रम नष्ट हो जाता है और पापों के फल स्वरूप उसे घोर नरक में पड़कर भयानक दुःखों का उपभोग करना होता है।
श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। 35।।
प्रश्न-‘सु-अनुष्ठितात्’ विशेषण के सहित ‘परधर्मात्’ पद किस धर्म का वाचक है और उसकी अपेक्षा गुण रहित स्वधर्म को अति उत्तम बतलाने का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य में पर धर्म और स्वधर्म की तुलना करते समय पर धर्म के साथ तो ‘सु-अनुष्ठित’ विशेषण दिया गया है और स्वधर्म के साथ ‘विगुण’ विशेषण दिया गया। अतः प्रत्येक विशेषण का विरोधी भाव उनके साथ अधिक समझ लेना चाहिये अर्थात् परधर्म को सद्गुण सम्पन्न और ‘सु-अनुष्ठित’ समझना चाहिये तथा स्वधर्म को विगुण और अनुष्ठान की कमी रूप दोषयुक्त समझ लेना चाहिये। साथ में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सद्गुणों की बहुलता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास-आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है, इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय के कर्म अधिक गुणयुक्त हैं। अतः ऐसा समझने से यहाँ यह भाव निकलता है कि जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किन्तु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हों, दूसरों के लिये ही विहित हों वैसे कर्मों का वाचक यहाँ ‘स्वनुष्ठितात्’ विशेषण के सहित ‘परधर्मात्’ पद है। उस परधर्म की अपेक्षा गुण रहित स्वधर्म को अति उत्तम बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे देखने में कुरूप और गुणहीन होने पर भी स्त्री के लिये अपने पति की सेवा करना ही कल्याण प्रद है, उसी प्रकार देखने में सद्गुणों से हीन होने पर तथा अनुष्ठान में अंगवैगुण्य हो जाने पर भी जिसके लिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है फिर जो स्वधर्म सर्वगुण सम्पन्न है और जिसका सांगोपांग पालन किया जाता है, उसके विषय में तो कहना ही क्या है?
प्रश्न-‘स्वधर्मः’ पद किस धर्म का वाचक है?
उत्तर-वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो कर्म शास्त्र ने नियत कर दिये हैं उसके लिये वही स्वधर्म है। अभिप्राय यह है कि झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, ठगी, व्यभिचार आदि निषिद्ध कर्म तो किसी के भी स्वधर्म नहीं हैं, और काम्यकर्म भी किसी के तो किसी के अवश्य कर्तव्य नहीं हैं, इस कारण उनकी गणना भी यहाँ किसी के स्वधर्मों में नहीं है। इनके सिवा जिस वर्ण या आश्रम के जो विशेष धर्म बतलाये गये हैं, जिनमें एक के सिवा दूसरे वर्ण-आश्रम वालों का अधिकार नहीं है, वे उन-उन वर्ण-आश्रम वालों के पृथक्-पृथक् स्वधर्म हैं, जिन कर्मों में द्विजमात्र का अधिकार बतलाया गया है, वे वेदाध्ययन और यज्ञादि कर्म द्विजो के लिये स्वधर्म हैं और जिनमें सभी वर्ण-आश्रमों के स्त्री पुरुषों का अधिकार है, वे ईश्वर की भक्ति, सत्य-भाषण, माता-पिता की सेवा, मन, इन्द्रियों का संयम, ब्रह्मचर्य पालन, अहिंसा, अस्तेय, सन्तोष, दया, क्षमा, पवित्रता और विनय आदि सामान्य धर्म के स्वधर्म हैं।
प्रश्न-जिन मनुष्य समुदाय में वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं है और जो वैदिक सनातन धर्म को नहीं मानते, उनके लिये स्वधर्म और परधर्म की व्यवस्था कैसे हो सकती है?
उत्तर-वास्तव में तो वर्णाश्रम की व्यवस्था समस्त मनुष्य समुदाय में होनी चाहिये और वैदिक सनातन धर्म भी सभी मनुष्यों के लिये मान्य होना चाहिये। अतः जिस मनुष्य समुदाय में वर्ण-आश्रम की व्यवस्था नहीं है, उनके लिये स्वधर्म और परधर्म का निर्णय करना कठिन है; तथापि इस समय धर्म संकट उपस्थित हो रहा है और गीता में मनुष्य मात्र के लिये उद्धार का मार्ग बतलाया गया है, इस आशय से ऐसा माना जा सकता है कि जिस मनुष्य का जिस जाति या समुदाय में जन्म होता है, जिन माता-पिता के रज-वीर्य से उसका शरीर बनता है, जन्म से लेकर कर्तव्य समझने की योग्यता आने तक जैसे संस्कारों में उसका पालन-पोषण होता है तथा पूर्वजन्म के जैसे कर्म-संस्कार होते हैं, उसी के अनुकूल उसका स्वभाव बनता है और उस स्वभाव के अनुसार ही जीविका के कर्मों में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हुआ करती है। अतः जिस मनुष्य-समुदाय में वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं है, उसमें उनके स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिसके लिये जो विहित कर्म है अर्थात् उनकी इस लोक और परलोक की उन्नति के लिये किसी महापुरुष के द्वारा जो कर्म उपयुक्त माने गये हैं, अच्छी नीयत से कर्तव्य समझकर जिनका आचरण किया जाता है, जो किसी भी दूसरे के धर्म और हित में बाधक नहीं हैं तथा मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य वर्ग माने गये हैं, वही उसका स्वधर्म है और उससे विपरीत जो दूसरों के लिये विहित है और उसके लिये विहित नहीं है, वह परधर्म है।
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