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कृष्ण ने बताया अर्जुन को भक्त व सखा

कृष्ण ने बताया अर्जुन को भक्त व सखा

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्योतदुत्तमम्।। 3।।

प्रश्न-तू मेरा भक्त और सखा है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे चिरकाल के अनुगत भक्त और प्रिय सखा हो; अतएव तुम्हारे सामने अत्यन्त रहस्य की बात भी प्रकट कर दी जाती है, हरेक मनुष्य के सामने रहस्य की बात प्रकट नहीं की जाती।

प्रश्न-वही यह पुरातन योग आज मैंने तुमको कहा है, इस कथन वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य में ‘स‘ एव’ और ‘पुरातनः’-इन पदों के प्रयोग से इस योग की अनादिता सिद्ध की गयी है; ‘ते’ पद से अर्जुन के अधिकार का निरूपण किया गया है और ‘अद्य’ पद से इस योग के उपदेश का अवसर बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस योग को मैंने पहले सूर्य से कहा था और जिसकी परम्परा अनादिकाल से चली आती है, उसी पुरातन योग को आज इस युद्ध क्षेत्र में तुम्हें अत्यन्त व्याकुल और शरणागत जानकर शोक की निवृत्तिपूर्वक कल्याण की प्राप्ति कराने के लिये मैंने तुमसे कहा है। शरणा गति के साथ-साथ अन्तस्तल की व्याकुलता भरी जिज्ञासा ही एक ऐसी साधना है जो मनुष्य को परम अधिकारी बना देती है। तुमने आज अपने इस अधिकार को सचमुच सिद्ध कर दिया। ऐसा पहले कभी नहीं किया था। इसी से मैंने इस समय तुम्हारे सामने यह रहस्य खोला है।

प्रश्न-यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह योग सब प्रकार के दुःखों से और बन्धनों से छुड़ाकर परमानन्द स्वरूप मुझ परमेश्वर को सुगमतापूर्वक प्राप्त करा देने वाला है, इसलिये अत्यन्त ही उत्तम और बहुत ही गोपनीय है; इसके सिवा इसका यह भाव भी है कि अपने को सूर्यादि के प्रति इस योग का उपदेश करने वाला बतलाकर और वही योग मैंने तुझसे कहा है, तू मेरा भक्त है-यह कहकर मैंने जो अपना ईश्वरभाव प्रकट किया है, यह बड़ी रहस्य की बात है। अतः अनधिकारी के सामने यह कदापि प्रकट नहीं करना चाहिये।

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथेमेतिद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। 4।।

प्रश्न-इस श्लोक में अर्जुन के प्रश्न का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-यद्यपि अर्जुन इस बात को पहले ही से जानते थे कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं बल्कि दिव्य मानव रूप में प्रकट सर्व शक्तिमान् पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही हैं, क्योंकि उन्होंने राजसूय यज्ञ के समय भीष्म जी से भगवान् की महिमा सुनी थी और अन्य ऋषियों से भी इस विषय की बहुत बातें सुन रक्खी थीं। इसी से वन में उन्होंने स्वयं भगवान् से उनके महत्त्व की चर्चा की थी। इसके सिवा शिशुपाल आदि के वध करने में और अन्यान्य घटनाओं में भगवान् का अद्भुत प्रभाव भी उन्होंने प्रत्यक्ष देखा था। तथापि भगवान् के मुख से उनके अवतार का रहस्य सुनने की और सर्व-साधारण के मन में होने वाली शंकाओं को दूर कराने की इच्छा से यहाँ अर्जुन का प्रश्न है। अर्जुन के पूछने का भाव यह है कि आपका जन्म हाल में कुछ ही वर्षों पूर्व श्री वसुदेव जी के घर हुआ है, इस बात को प्रायः सभी जानते हैं और सूर्य की उत्पत्ति सृष्टि के आदि में अदिति के गर्भ से हुई थी; ऐसी स्थिति में इसका रहस्य समझे बिना यह असम्भव सी बात कैसे मानी जा सकती है कि आपने यह योग सृष्टि के आदि में सूर्य से कहा था जिससे सूर्य के द्वारा इसकी परम्परा चली; अतएव कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाकर कृतार्थ कीजिये।

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाण न त्वं वेत्थ परंतप।। 5।।

प्रश्न-मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं और तुम अभी हुए हैं, पहले नहीं थे-ऐसी बात नहीं है। हम लोग अनादि और नित्य हैं। मेरा नित्य स्वरूप तो है ही; उसके अतिरिक्त मैं मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह और वामन आदि अनेक रूपों में पहले प्रकट हो चुका हूँ। मेरा यह वसुदेव के घर में होने वाला प्राकट्य अर्वाचीन होने पर भी इसके पहले होने वाले अपने विविध रूपों में मैंने असंख्य पुरुषों को अनेक प्रकार के उपदेश दिये हैं। इसलिये

मैंने जो यह बात कही है कि यह योग पहले सूर्य से मैंने ही कहा था, इसमें तुम्हें कोई आश्चर्य और असम्भावना नहीं माननी चाहिये; इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि कल्प के आदि में मैंने नारायण रूप से सूर्य को यह योग कहा था।

प्रश्न-उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन में भगवान् ने अपनी सर्वज्ञता का और जीवों की अल्पज्ञता का दिग्दर्शन कराया है। भाव यह है कि मैंने किन-किन कारणों से किन-किन रूपों में प्रकट होकर किस-किस समय क्या-क्या लीलाएँ की हैं, उन सबको तुम सर्वज्ञ न होने के कारण नहीं जानते; तुम्हें मेरे और अपने पूर्व जन्मों की स्मृति नहीं है, इसी कारण तुम इस प्रकार प्रश्न कर रहे हो। किन्तु मुझसे जगत् की कोई घटना छिपी नहीं है। भूत, वर्तमान और भविष्य सभी मेरे लिये वर्तमान हैं। मैं सभी जीवों को और उनकी सब बातों को भली-भाँति जानता हूँ, क्योंकि मैं सर्वज्ञ हूँ; अतः जो यह कह रहा हूं कि मैंने ही कल्प के आदि में इस योग का उपदेश सूर्य को दिया था, इस विषय में तुम्हें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिये।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। 6।।

प्रश्न-‘अजः’ ‘अव्ययात्मा’ और ‘भूतानामीश्वरः‘-इन पदों के साथ ‘अपि’ और ‘सन्’ का प्रयोग करके यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है? 
उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ। वास्तव में मेरा जन्म और विनाश कभी नहीं होता, तो भी मैं साधारण व्यक्ति की भाँति जन्मता और विनष्ट होता-सा प्रतीत होता हूँ; इसी तरह समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी एक साधारण व्यक्ति सा ही प्रतीत होता हूँ। अभिप्राय यह है कि मेरे अवतार तत्व को न समझने वाले लोग जब मैं मत्स्य, कच्छप, वराह और मनुष्यादि रूप में प्रकट होता हूँ, तब मेरा जन्म हुआ मानत हैं और जब मैं अन्तर्धान हो जाता हूँ, उस समय मेरा विनाश समझ लेते हैं तथा जब मैं रूप में दिव्य लीला करता हूँ, तब मुझे अपने-जैसा ही साधारण व्यक्ति समझकर मेरा तिरस्कार करते हैं। वे बेचारे इस बात को नहीं समझ पाते कि ये सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वर, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव साक्षात् पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही जगत् का कल्याण करने के लिये इस रूप में प्रकट होकर दिव्य लीला कर रहे हैं; क्योंकि मैं उस समय अपनी योग माया के परदे में छिपा रहता हूँ।
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