क्रोध से ज्यादा विनाशक काम

क्रोध से ज्यादा विनाशक काम

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-यदि ‘काम’ और ‘क्रोध’ दोनों ही मनुष्य के शत्रु हैं तो फिर भगवान् ने पहले दोनों के नाम लेकर फिर अकेले काम को ही शत्रु समझने के लिए कैसे कहा?

उत्तर-पहले बतलाया जा चुका है कि काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। अतः काम के नाश के साथ ही उसका नाश अपने आप ही हो जाता है। इसलिये भगवान् ने इस प्रकरण में इसके बाद केवल ‘काम’ का ही नाम लिया है। परन्तु कोई यह न समझ ले कि पापों का हेतु केवल काम ही है, क्रोध का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; इसलिये प्रकरण के आरम्भ में काम के साथ क्रोध को भी गिना दिया है।

प्रश्न-काम की उत्पत्ति रजोगुण से होती है या राग से?

उत्तर-रजोगुण से राग की वृद्धि होती है और राग से रजोगुण की। अतः इन दोनों का एक ही स्वरूप माना गया है। इसलिये काम की उत्पत्ति के दोनों ही कारण हैं।

प्रश्न-काम को ‘महाशनः’ यानी बहुत खाने वाला कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे यह दिखलाया है कि यह काम भोगों को भोगते-भोगते कभी तृप्त नहीं होता। जैसे घृत और ईंधन से अग्नि बढ़ती है, उसी प्रकार मनुष्य जितने ही अधिक भोग भोगता है, उतनी ही अधिक उसकी भोग-तृष्णा बढ़ती जाती है। इसलिये मनुष्य को यह कभी न समझना चाहिये कि भोगों का प्रलोभन देकर मैं साम और दान नीति से कामरूप वैरी पर विजय प्राप्त कर लूँगा, इसके लिये तो दण्डनीति का ही प्रयोग करना चाहिये।

प्रश्न-काम को ‘महापाप्मा’ यानी बड़ा पानी कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि सारे अनर्थों का कारण यह काम ही है। मनुष्य को बिना इच्छा पापों में नियुक्त करने वाला न तो प्रारब्ध है और न ईश्वर ही है, यह काम ही मनुष्य को नाना प्रकार के भोगों में आसक्त करके उसे बलात्कार से पापों में प्रवृत्त कराता है; इसलिये यह महान् पापी है।

प्रश्न-इसी को तू इस विषय में बैरी जान, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो हमें जबरदस्ती ऐसी स्थिति में ले जाय कि जिसका परिणाम महान् दुःख या मृत्यु हो, उसको अपना शत्रु समझना चाहिये और यथा सम्भव शीघ्र-से-शीघ्र उसका नाश कर डालना चाहिये। यह ‘काम’ मनुष्य को उसकी इच्छा के बिना ही जबरदस्ती पापों में लगाकर उसे जन्म-मरणरूप और नरक-भोगरूप महान् दुःखों का भागी बनाता है। अतः कल्याण-मार्ग में इसी को अपना महान् शत्रु समझना चाहिये। ईश्वर तो परम दयालु और प्राणियों के सुहृद हैं, वे किसी को पापों में कैसे नियुक्त कर सकते हैं और प्रारब्ध पूर्वकृत कर्मों के भोग का नाम है, उसमें किसी को पापों में प्रवृत्त करने की शक्ति नहीं है। अतः पापों में प्रवृत्त करने वाला बैरी दूसरा कोई नहीं है, यह ‘काम’ ही है।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। 38।।

प्रश्न-धुआँ, मल और जेर-इन तीनों के दृष्टान्त से काम के द्वारा ज्ञान को आवृत बतलाकर यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है?

उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि यह काम ही मल, विक्षेप और आवरण-इन तीनों दोषों के रूप में परिणत होकर मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित किये रहता है। यहाँ धूएँ के स्थान में ‘विक्षेप’ को समझना चाहिये। जिस प्रकार धुआँ चंचल होते हुए भी अग्नि को ढक लेता है, उसी प्रकार ‘विक्षेप’ चंचल होते हुए भी ज्ञान को ढके रहता है; क्योंकि बिना एकाग्रता के अन्तःकरण में ज्ञान शक्ति प्रकाशित नहीं हो सकती, वह दबी रहती है। मैल के स्थान में ‘मल’ दोष को समझना चाहिये। जैसे दर्पण पर मैल जम जाने से उसमें प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता, उसी प्रकार पापों के द्वारा अन्तःकरण के अत्यन्त मलिन हो जाने पर उसमें वस्तु या कर्तव्य का यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित नहीं कर सकता। जेर के स्थान में ‘आवरण’ को समझना चाहिये। जैसे जेर से गर्भ सर्वथा आच्छादित रहता है, उसका कोई अंश भी दिखलायी नहीं देता, वैसे ही आवरण से ज्ञान सर्वथा ढका रहता है जिसका अन्तःकरण अज्ञान से मोहित रहता है वह मनुष्य निद्रा और आलस्यादि के सुख में फँसकर किसी प्रकार का विचार करने में प्रवृत्त ही नहीं होता।

यह काम ही मनुष्य के अन्तःकरण में नाना प्रकार के भोगों की तृष्णा बढ़ाकर उसे विक्षिप्त बनाता है, यही मनुष्य से नाना प्रकार के पाप करवाकर अन्तःकरण में मल दोष की वृद्धि करता है और यही उसकी निद्रा, आलस्य ओर अकर्मण्यता में सुख-वृद्धि करवाकर उसे सर्वथा विवेक शून्य बना देता है। इसीलिये यहाँ इसको तीनों प्रकार से ज्ञान का आच्छादन करने वाला बतलाया गया है।

प्रश्न-यहाँ ‘तेन’ पद का अर्थ काम और ‘इदम्’ पद का अर्थ ज्ञान किस आधार पर किया गया है?

उत्तर-इसके पहले श्लोक में काम को वैरी समझने के लिये कहा है और अगले श्लोक में भगवान् ने स्वयं काम से ज्ञान को आवृत बतलाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि इस श्लोक में ‘तेन’ सर्वनाम ‘काम’ का और ‘इदम’ सर्वनाम ‘ज्ञान’ का वाचक है। इसी आधार पर दोनों पदों का उपर्युक्त अर्थ किया गया है।

आवतृं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।। 39।।

प्रश्न-‘अनलेन’ और ‘दुष्पूरेण’ विशेषणों का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘बस, और कुछ भी नहीं चाहिये’ ऐसे तृप्ति के भाव का वाचक ‘अलम’ अव्यय है; इसका जिसमें अभाव हो, उसे ‘अनल’ कहते हैं। अग्नि में चाहे जितना घृत और्र इंधन क्यों न डाला जाय, उसकी तृप्ति कभी नहीं होती; इसीलिये अग्नि का नाम ‘अनल’ है जो किसी प्रकार से पूर्ण न हो, उसे ‘दुष्पूर’ कहते हैं। अतः यहाँ उपर्युक्त विशेषणों का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि यह ‘काम’ भी अग्नि की भाँति ‘अनल’ और दुष्पूर’ है। मनुष्य जैसे-जैसे विषयों को भोगता है, वैसे-ही-वैसे अग्नि की भाँति उसका ‘काम’ बढ़ता रहता है, उसकी तृप्ति नहीं होती। राजा ययातिने बहुत-से भोगों को भोगने के बाद अन्त में कहा था-

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते।।

‘विषयों के उपभोग से ‘काम’ कभी शान्त नहीं होता, बल्कि घृत से अग्नि की भाँति और अधिक ही बढ़ता जाता है।’

प्रश्न-यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद किन ज्ञानियों का वाचक है और काम को उनका ‘नित्य वैरी’ बतलाने का क्या भाव है? 
उत्तर-यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये साधन करने वाले विवेकशील साधकों का वाचक है। यह कामरूप शत्रु उन साधकों के अन्तःकरण मेें विवेक, वैराग्य और निष्काम भाव को स्थिर नहीं होने देता? उनके साधन में बाधा उपस्थित करता रहता है। इस कारण इसको ज्ञानियो का ‘नित्य वैरी’ बतलाया गया है। वास्तव में यह काम सभी को अधोगति में ले जाने वाला होने के कारण सभी का वैरी है’; परन्तु अविवेकी मनुष्य विषयों को भोगते समय भोगांे में सुख-वृद्धि होने के कारण भ्रम से इसे मित्र के सदृश समझते हैं और इसके तत्व को जानने वाले विवेकियों को यह प्रत्यक्ष ही हानि कर दीखता है। इसीलिये इसको अविवेकियों को नित्य वैरी न बतलाकर ज्ञानियों का नित्य वैरी बतलाया गया है।
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