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अनादिकाल से चला आ रहा कर्मयोग

अनादिकाल से चला आ रहा कर्मयोग

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। 1।।

प्रश्न-यहाँ ‘इमम्’ विशेषण के सहित ‘योगम्’ पद किस योग का वाचक है-कर्मयोग का या सांख्य योग का?

उत्तर-दूसरे अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कर्मयोग का वर्णन आरम्भ करने की प्रतिज्ञा करके भगवान् ने उस अध्याय के अन्त तक कर्मयोग का भलीभाँति प्रतिपादन किया। इसके बाद तीसरे अध्याय में अर्जुन के पूछने पर कर्म करने की आवश्यकता में बहुत-सी-युक्तियाँ बतलाकर तीसवें श्लोक में उन्हें भक्ति सहित कर्मयोग के अनुसार युद्ध करने के लिये आज्ञा दी और इस कर्मयोग में मन को वश में करना हुत आवश्यक समझकर अध्याय के अन्त में भी बुद्धि द्वारा मन को वश में करके काम रूप शत्रु को मारने के लिए कहा।

इससे मालूम होता है कि तीसरे अध्याय के अन्त तक प्रायः कर्मयोग का ही अंग-प्रत्यंगों सहित प्रतिपादन किया गया है और ‘इमम्’ पद जिसका प्रकरण चल रहा हो, उसी का वाचक होना चाहिये। अतएव यह समझना चाहिये कि यहाँ ‘इमम्’ विशेषण सहित ‘योगम्’ पद ‘कर्मयोग’ का ही वाचक है।

इसके सिवा इस योग की परम्परा बतलाते हुए भगवान् ने यहाँ जिन ‘सूर्य’ और ‘मनु’ आदि के नाम गिनाये हैं, वे सब गृहस्थ और कर्मयोगी ही हैं तथा आगे इस अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में भूतकालीन मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर भी भगवान् ने अर्जुन को कर्म करने के लिये आज्ञा दी है, इससे भी यहाँ ‘इमम्’ विशेषण के सहित ‘योगम्’ पद को कर्मयोग का ही वाचक मानना उपयुक्त मालूम होता है।

प्रश्न-तीसरे अध्याय के अन्त में भगवान् ने ‘आत्मानम् आत्मना संस्तम्य’-आत्मा के द्वारा आत्मा को निरुद्ध करके इस कथन से मानो समाधिस्थ होने के लिए कहा है और ‘युज समाधौ’ के अनुसार योग्य का अर्थ मन-इन्द्रियों का संयम करके समाधिस्थ हो जाना मान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-वहाँ भगवान् ने आत्मा के द्वारा आत्मा को निरुद्ध करके अर्थात बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके कामरूप दुर्जय शत्रु का नाश करने के लिये आज्ञा दी है। कर्मयोग में निष्काम भाव ही मुख्य है, वह काम का नाश करने से ही सिद्ध हो सकता है तथा मन और इन्द्रियों को वश में करना कर्मयोगी के लिये परमावश्यक माना गया है। अतएव बुद्धि के द्वारा मन इन्द्रियों को वश में करना और काम को मारना-ये सब कर्मयोग के ही अंग हैं और उपर्युक्त प्रथम प्रश्न के उत्तर के अनुसार वहाँ भगवान् का कहना कर्मयोग का साधन करने के लिये ही है, इसलिये यहाँ योग का अर्थ हठ योग या समाधियोग न मानकर कर्मयोग ही मानना चाहिये।

प्रश्न-इस योग को मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने मनु से कहा और मनु ने इक्ष्वाकु से कहा-यहाँ इस बात के कहने का क्या उद्देश्य है?

उत्तर-मालूम होता है कि इस येाग की परम्परा बतलाने के लिये एवं यह योग सबसे प्रथम इस लोक में क्षत्रियों को प्राप्त हुआ था-यह दिखलाने तथा कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये ही भगवान् से ऐसा कहा है।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप।। 2।।

प्रश्न-इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि एक दूसरे से शिक्षा पाकर कई पीढ़ियों तक श्रेष्ठ राजा लोग इस कर्मयोग का आचरण करते रहे; उस समय इसका रहस्य समझने में बहुत ही सुगमता थी, परन्तु अब वह बात नहीं रही।

प्रश्न-‘राजर्षि’ किसको कहते हैं?

उत्तर-जो राजा भी हो और ऋषि भी हो अर्थात् जो राजा होकर वेदमंत्रों के अर्थ का तत्त्व जानने वाला हो, उसे ‘राजर्षि’ कहते हैं।

प्रश्न-इस योग को राजर्षियों ने जाना, इस कथन का क्या यह अभिप्राय है कि दूसरों ने उसे नहीं जाना?

उत्तर-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि इसमें दूसरों के जानने का निषेध नहीं किया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि कर्मयोग का तत्त्व समझने में राजर्षियों की प्रधानता मानी गयी है; इसी से इतिहासों में यह बात मिलती है कि दूसरे लोग भी कर्मयोग का तत्त्व राजर्षियों से सीखा करते थे। अतएव यहाँ भगवान् के कहने का यही अभिप्राय मालूम होता है कि राजा लोग पहले ही से इस कर्मयोग का अनुष्ठान करते आये हैं और तुम भी राजवंश में उत्पन्न हो, इसलिये तुम्हारा भी इसी में अधिकार है और यही तुम्हारे लिये सुगम भी होगा।

प्रश्न-बहुत काल से वह योग इस लोक में प्रायः नष्ट हो गया, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जब तक वह परम्परा चलती रही तब तक तो कर्मयोग का इस पृथ्वीलोक में प्रचार रहा। उसके बाद ज्यों-ज्यों लोगों में भोगों की आसक्ति बढ़ने लगी त्यों-ही-त्यों कर्मयोग के अधिकारियों की संख्या घटती गयी; इस प्रकार हृास होते-होते अन्त में कर्मयोग की वह कल्याणमयी परम्परा नष्ट हो गयी; इसलिये उसके तत्त्व को समझने वाले और धारण करने वाले लोगों का इस लोक में बहुत काल पहले से ही प्रायः अभाव-सा हो गया है।

प्रश्न-पहले श्लोक में तो ‘योगम्’ के साथ ‘अव्ययम्’ विशेषण देकर इस योग को अविनाशी बतलाया और यहाँ कहते हैं कि वह नष्ट हो गया; इस परस्पर विरोधी कथन का क्या अर्थ है? यदि वह अविनाशी है, तो उसका नाश नहीं होना चाहिये और यदि नाश होता है, तो वह अविनाशी कैसे? उत्तर-परमात्मा की प्राप्ति के साधन रूप कर्मयोग, ज्ञान योग, भक्ति योग आदि जितने भी साधन हैं-सभी नित्य हैं; इनका कभी अभाव नहीं होता। जब परमेश्वर नित्य हैं, तब उनकी प्राप्ति के लिये उन्हीं के द्वारा निश्चित किये हुए अनादि नियम अनित्य नहीं हो सकते। जब-जब जगत् का प्रादुर्भाव होता है, तब-तब भगवान् के समस्त नियम भी साथ-ही-साथ प्रकट हो जाते हैं और जब जगत् का प्रलय होता है, उस समय नियमों का भी तिरोभाव हो जाता है; परन्तु उनका अभाव कभी कम नहीं होता। इस प्रकार इस कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये पूर्व श्लोक में उसे अविनाशी कहा गया है। अतएव इस श्लोक में जो यह बात कही गयी वह योग बहुत काल से नष्ट हो गया है-इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि बहुत समय से इस पृथ्वीलोक में उसका तत्त्व समझने वाले श्रेष्ठ पुरुषों का अभाव सा हो गया है, इस कारण वह अप्रकाशित हो गया है, उसका इस लोक में तिरोभाव हो गया है, यह नहीं कि उसका अभाव हो गया है, क्यांेकि सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं होता; सृष्टि के आदि में पूर्व श्लोक के कथनानुसार भगवान् से इसका प्रादुर्भाव होता है; फिर बीज में विभिन्न कारणों से कभी उसका अप्रकाश होता है तथा कभी प्रकाश और विकास! यों होते-होते प्रलय के समय वह अखिल जगत के सहित भगवान में ही विलीन हो जाता है। इसी को नष्ट या अदृश्य होना कहते हैं; वास्तव में वह अविनाशी है, अतएव उसका कभी अभाव नहीं होता।
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