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दिवा स्वप्न दिखलाने वाले

दिवा स्वप्न दिखलाने वाले

सूरज को झुठलाने वाले
जुगनू बन इठलाने वाले
सुन, नन्हें तारों की महफ़िल
से यह दुनिया बहुत बड़ी है
सूरज-ऊष्मा से अभिसिंचित
अनुप्राणित अभिप्रेरित धरती
श्रद्धा शील संकुचित मन से
हाथ जोड़कर विनत खड़ी है
मुँह पर लघुता-कम्बल डाले।
तू धरती का नन्हा कण है
क्षणभंगुर निर्बल बिन जड़ है
तेरी अंँजुरी से यह चंदा
कोटि कोटि लख पदम गुना है
जिसकी शीतलता से प्लावित
धरती सूखा आँचल भरती
वही चाँद, सूरज के सम्मुख
द्युतिविहीन निस्तेज पड़ा है
जैसे जिह्वा पर हों छाले।
शंख - सीपियों जैसे छोटे
उर में खोट लिए खल खोटे
मुट्ठी में कुछ मणियाँ भरकर
सागर से नासमझ भिड़ा है
जिसमें चौदह रत्न समाहित
तूफाँ ज्वार भाट से पूरित
सागर का विस्तीर्ण कलेजा
सूर्य - रश्मि से डरा डरा है
ज्यों तालाब झील घट नाले।
डॉ अवधेश कुमार अवध साहित्यकार व अभियंता
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