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खिंची रहती थी खंजीरे

खिंची रहती थी खंजीरे

खिंची रहती थी खंजीरे,जब वो पास रहते थे,
उनके दूर चले जाने से, मन उदास रहता है।
जुबां खामोश है, खंजीरे जंगी हो गई हैं,
तन्हां सा जीवन, सूना सा आँगन लगता है।
उनका दहकना शोलों के मानिंद, आँगन में,
खोई हुई धूप का, एक हिस्सा सा लगता है।
वो मेरे सामने होते हैं, तो नफरत उगती है,
उनकी जुदाई मे, उन पर प्यार उमड़ता है।
थे वो कुछ मगरूर मगर, नादां थे दिल से,
उनकी नादानी पर, मेरा दिल मचलता है।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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