हिन्दुओं को मंदिर दर्शन के बाद मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर आवश्यक बैठना चाहिए
दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा
पुराने जमाने से यह परंपरा रही है कि जब हिन्दू लोग किसी भी मंदिर में दर्शन के लिए जाते है तो दर्शन उपरांत मंदिर परिसर से बाहर निकलने के पहले या कहें कि मंदिर से निकलते समय मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठ जाते है। इसे वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते है कि यह परंपरा आखिर क्यों है? हमारे हिन्दू धर्म में प्रत्येक परंपरा किसी न किसी तार्किक आधार पर आधारित होता है। इसलिए यह भी तार्किक आधार पर ही आधारित है।
मंदिर दर्शन के बाद मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर आवश्यक बैठना चाहिए। क्योंकि यह एक प्राचीन परंपरा है और इसे एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। मंदिर की पैड़ी पर सिर्फ बैठना ही नहीं है बल्कि मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक भी बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग लगभग भूल ही गए हैं। इसलिए इस श्लोक का मनन करना चाहिए और आने वाली नई पीढ़ी को बताना भी चाहिए। वह श्लोक है-
अनायासेन मरणम् ,
बिना देन्येन जीवनम्।
देहांत तव सानिध्यम् ,
देहि मे परमेश्वरम्॥
अब इस श्लोक का अर्थ समझना भी आवश्यक है, ताकि अर्थ जानने पर श्लोक का मनन करने में सहयोग मिलेगा।
अनायासेन मरणम्
इसका अर्थ हुआ कि “बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो, चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।”
बिना देन्येन जीवनम्
इसका अर्थ हुआ कि “परवशता का जीवन ना हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हों। भगवान की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।”
देहांते तव सानिध्यम
इसका अर्थ हुआ कि “जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।”
देहि मे परमेश्वरम्
इसका अर्थ हुआ कि “हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।”
पुराने जमाने में यानि हमारे पूर्वजों का, यह भी मानना है कि भगवान से प्रार्थना करते हुए इस श्लोक का पाठ करने से निज आत्म स्वरूप ध्यान में भगवान दर्शन देते है। लोगों को गाड़ी, पुत्र, पुत्री, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना चाहिए, क्योंकि यह भगवान लोगों की पात्रता के हिसाब से खुद देते हैं। इसलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह श्लोक (प्रार्थना) अवश्य पढ़नी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। क्योंकि याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे- घर, व्यापार, नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना कहलाता है, जिसे हम लोग भीख मांगना कहते है।
मान्यता है कि मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, उन्हें निहारना चाहिए। जबकि प्रायः देखा जाता है कि कुछ लोग मंदिर में आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। अब जरा सोचिए कि मंदिर में आंखें आखिर बंद क्यों करना है, जबकि हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, श्रृंगार का, तो फिर आँख खोलकर संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।
हाँ आँखें बंद करना चाहिए लेकिन कब, जब मंदिर दर्शन के बाद बाहर आकर बैठते है तब, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है उस स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करना चाहिए और इस वक्त नेत्र बंद रखना चाहिए और अगर निज आत्म स्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जा कर और पुन: दर्शन करना चाहिए।
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