आज कोख लजादी भ्रष्टाचारी
नज़र ना आती दूर दूर तक आज वह ईमानदारी,
जाल-झूठ लूट खसोट एवं बढ़ रही है मक्कारी।
सच्चे लोगों का आज कल जीना हो गया दुश्वारी,
लेकर कटोरे घूम रहे है हाथ में दर दर भिखारी।।
धर्म की बात कोई ना करता कैसी ये दुनियादारी,
भारत-माता की कोख लजादी आज भ्रष्टाचारी।
देश विदेश में बढ़ रही यह दिन प्रतिदिन बिमारी,
मानवाधिकार ना मिल रहा इसीलिए है लाचारी।।
अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाएं या लिखें कविता प्यारी,
देश को खोखला कर रहा है यह क्रेप्शन हमारी।
ये रिश्ते तोड़कर जा रहें है सभी दूर दूर व्यापारी,
दीमक जैसे कुत्तर रहें ये अपनी ही चार दिवारी।।
बढ़ा रहें है बिमारियां वो खा खाकर हो रहें भारी,
अपनी-अपनी सोचते है न लेते कोई जिम्मेदारी।
सोचों समझो व्यापारी हो चाहें हो वह कारोबारी,
किसी का दीपक न बुझाएं भूले न कोई खुद्दारी।।
कालाधन कोई न जोड़ें ये भी होता विनाशकारी,
न दे कोई और न ले कोई बुरी बला रिश्वतखोरी।
चाहें ग़रीब हो चाहें अधिकारी सभी बनाओं दूरी,
न हफ़्ता न हिस्सा कमीशन मत कर थारी-मारी।।
रचनाकार गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
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