आसक्ति को छोड़ कर्म करने का उपदेश
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-इन्द्रियों के साथ-साथ प्राण और मन-सम्बन्धी क्रियाओं का वर्णन करके भी केवल ऐसा ही मानने के लिये क्यों कहा कि ‘इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के अर्थों में बरतती हैं?
उत्तर-क्रियाआंे में इन्द्रियों की ही प्रधानता है। प्राण को भी इन्द्रियों के नाम से वर्णन किया गया है और मन भी आभ्यन्तरकरण होने से इन्द्रिय ही है। इस प्रकार ‘इन्द्रिय’ शब्द में सबका समावेश हो जाता है, इसलिये ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
प्रश्न-यहाँ ‘एव’ का प्रयोग किस उद्देश्य से किया गया है?
उत्तर-कर्मों में कर्तापन का सर्वथा अभाव बतलाने के लिये यहाँ ‘एव’ पद का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि सांख्य योगी किसी भी अंश में कभी अपने को कर्मों का कर्ता नहीं माने।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पùपत्रमिवाम्भसा।। 10।।
प्रश्न-सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करना क्या है?
उत्तर-ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रमानुकूल अर्थोपार्जन सम्बन्धी और खान-पानादि शरीर निर्वाह सम्बन्धी जितने भी शास्त्र विहित कर्म हैं, उन सबको ममता का सर्वथा त्याग करके, सब कुछ भगवान् का समझकर, उन्हीं के लिये, उन्हीं की आज्ञा और इच्छा के अनुसार, जैसे वे करावें वैसे ही, कठपुतली की भाँति करना; परमात्मा में सब कर्मों का अर्पण करना है।
प्रश्न-आसक्ति को छोड़कर कर्म करना क्या है?
उत्तर-स्त्री, पुत्र, धन, गृह आदि भोगों की समस्त सामग्रियों में, स्वर्गादि लोकों में, शरीर में, समस्त क्रियाओं में एवं मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा आदि में सब प्रकार से आसक्ति का त्याग करके उपर्युक्त प्रकार से कर्म करना ही आसक्ति छोड़कर कर्म करना है।
प्रश्न-कर्मयोगी तो शास्त्र विहित सत्कर्म ही करता है, वह पाप-कर्म तो करता ही नहीं और बिना पाप-कर्म किये पाप से लिप्त होने की आशंका नहीं होती, फिर यह कैसे कहा गया कि वह पापों से लिप्त नहीं होता?
उत्तर-विहित कर्म भी सर्वथा निर्दोष नहीं होते, आरम्भ मात्र से ही हिंसादि के सम्बन्ध से कुछ-न-कुछ पाप हो ही जाते हैं। इसीलिये भगवान् ने ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनागिनरिवावृताः’ कहकर कर्मों के आरम्भ को सदोष बतलाया है। अतएव जो मनुष्य फल-कामना और आसक्ति के वश होकर भोग और आराम के लिये कर्म करता है, वह पापांे से कभी बच नहीं सकता। कामना और आसक्ति ही मनुष्य के बन्धन में हेतु हैं, इसलिये जिसमें कामना ओर आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है, वह पुरुष कर्म करता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता-यह कहना ठीक ही है।
कायेन मनसा बुद्ध्या कैवलैरिन्द्रयैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये।।11।।
प्रश्न-यहाँ ‘केवलैः‘ इस विशेषण का क्या अभिप्राय है? इसका सम्बन्ध केवल इन्द्रियों से ही है, या मन, बुद्धि और शरीर से भी?
उत्तर-यहाँ ‘केवलैः’ यह विशेषण ममता के अभाव का द्योतक है और यहाँ इन्द्रियों के विशेषण के रूप में दिया गया है। किन्तु मन, बुद्धि और शरीर से भी इसका सम्बन्ध कर लेना चाहिये। अभिप्राय यह है कि कर्मयोगी मन, बुद्धि, शरीर और इन्द्रियों में ममता नहीं रखते; वे इन सबको भगवान की ही वस्तु समझते हैं और लौकिक स्वार्थ से सर्वथा रहित होकर निष्काम भाव से भगवान् की प्रेरणा के अनुसार, जैसे वे कराते हैं वैसे ही, समस्त कर्तव्य कर्म करते रहते हैं।
प्रश्न-सब कर्मों को ब्रह्म में अर्पण करके अनासक्त रूप से उनका आचरण करने के लिये तो दसवें श्लोक में भगवान् ने क ही दिया था, फिर यहाँ दुबारा वही आसक्ति के त्याग की बात किस प्रयोजन से कही?
उत्तर-कर्मों को ब्रह्म में अर्पण करने तथा आसक्ति का त्याग करने की बात तो भगवान् ने अवश्य ही कह दी थी; परन्तु वह भक्ति प्रधान कर्मयोगी का वर्णन है। जैसे इसी अध्याय के आठवें और नवंे श्लोक में सांख्य योगी के मन, बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण और शरीर द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएँ किस भाव और किस प्रकार से होती हैं-यह बतलाया था, वैसे ही कर्म प्रधान कर्मयोगी की क्रियाएँ किस भाव और किस प्रकार से होती हैं, यह बात समझाने के लिये भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगी मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरादि में एवं उनके द्वारा होने वाली किसी भी क्रिया में ममता और आसक्ति न रखकर अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं। इस प्रकार कर्म प्रधान कर्मयोगी के कर्म का भाव और प्रकार बतलाने के लिये ही यहाँ पुनः आसक्ति के त्याग की बात कही गयी है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्तवा शान्तिमान्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।। 12।।
प्रश्न-आठवें श्लोक में ‘युक्त’ शब्द का अर्थ सांख्य योगी किया गया है। फिर यहाँ उसी ‘युक्त’ शब्द का अर्थ कर्मयोगी कैसे किया गया?
उत्तर-शब्द का अर्थ प्रकरण के अनुसार हुआ करता है। इसी न्याय से गीता में ‘युक्त’ शब्द का भी प्रयोग प्रसंगानुसार भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है। ‘युक्त’ शब्द ‘युज्’ धातु से बनता है, जिसका अर्थ जुड़ना होता है। दूसरे अध्याय के इकसठवें श्लोक में ‘युक्त’ शब्द ‘संयमी’ के अर्थ में आया है, छठे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवत् प्राप्त ‘तत्वज्ञानी’ के लिए, सतरहवें श्लोक में आहार-विहार के साथ होने से ‘औचित्य’ के अर्थ में और अठारहवें श्लोक में ‘ध्यान योगी’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, तथा सातवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में वही श्रद्धा के साथ होने से संयोग का वाचक माना गया है। इसी प्रकार इस अध्याय के आठवें श्लोक में वह सांख्य योगी के अर्थ में आया है। वहाँ समस्त इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं, ऐसा समझकर अपने को कर्तापन से रहित मानने वाले तत्त्वज्ञ पुरुष को ‘युक्त’ कहा गया है; इसलिये वहाँ उसका अर्थ ‘सांख्ययोगी’ मानना ही ठीक है। परन्तु यहाँ ‘युक्त’ शब्द सब कर्मों के फल का त्याग करने के लिये आया है, अतएव यहाँ इसका अर्थ ‘कर्मयोगी’ ही मानना होगा।
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